प्रस्तुत है बोधान आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 07/11/2021 का सदाचार संप्रेषण
आचार्य जी के शिक्षकत्व का हमें लाभ लेना चाहिए
स्थान, परिस्थिति,मानसिकता ये सब बहुत प्रभावित नहीं करते हैं तो अपने निर्धारित कर्तव्य कर्म को अभ्यास में ले आना चाहिए और अभ्यास में कोई चीज है तो सहज आप उससे संयुक्त हो जाते हैं
यद्यपि गीता का चिन्तन हमें संदेश देता है
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
हे कुन्तीपुत्र ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये; क्योंकि सारे कर्म धुएँ से अग्नि की तरह किसी न किसी दोष से युक्त हैं।
लेकिन कभी कभी मनुष्य करना तो कुछ चाहता है फिर भी करना कुछ पड़ जाता है और उसे बहुत क्षोभ होता है
फिर भी हमें परेशान नहीं होना चाहिए
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।18.46।।
जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।18.47।।
अच्छी तरह से अनुष्ठान किये हुए परधर्म से गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है। कारण कि स्वभाव से नियत किये हुए स्वधर्मरूप कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता।
कई बार लोग कहते हैं जब सहजता स्वभाव में आ जाती है तो आदमी को कमजोर कर देती है आचार्य जी का मत है सहजता आदमी को कमजोर नहीं करती उसे आत्मविश्वासी बनाती है और उसके पश्चात् उसको संसार से लड़ने की शक्ति भी देती है
लेकिन आत्मस्थ होने का अभ्यास करते रहना चाहिए
कौन रंग देता तितलियों के परों को...
कौन का प्रश्न जितना सुलझ जाता है और जिसको यह अनुभूति हो जाती है कि जो हमारे अन्दर विद्यमान है वही यह सब करवाता है तो इससे अच्छा कुछ नहीं l