6.2.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 06/02/2022 का सदाचार संप्रेषण

 श्लोकेन वा तदर्धेन तदर्धार्धाक्षरेण वा ।

अबन्ध्यं दिवसं कुर्याद्दानाध्ययनकर्मभिः ॥


(ऐसा एक भी दिन नहीं बीतना चाहिये जब आपने एक श्लोक, आधा श्लोक, चौथाई श्लोक, या श्लोक का मात्र एक अक्षर नहीं सीखा  या आपने दान, अध्ययन या कोई भी पवित्र काम नहीं किया।)


प्रस्तुत है प्राधीत आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 06/02/2022

  का  सदाचार संप्रेषण 




https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w


https://t.me/prav353


(शंकुलधारा पोखरा स्थित द्वारिकाधीश मंदिर में महामंडलेश्वर स्वामी प्रखर महाराज के सानिध्य में चल रहे 51 दिवसीय  श्री लक्षचण्डी महायज्ञ में कल एक वक्ता श्री सुरेश चन्द्र तिवारी जी बोले कि हम लोग जिसे विद्या समझते हैं वह वास्तव में अविद्या है और वास्तविक विद्या को हम जानना ही नहीं चाहते हैं जब कि अविद्या और विद्या दोनों की ही हमें आवश्यकता है,... और इस तरह के यज्ञ कर हम पाखंड को भस्म करने का संकल्प लें....)


आती हैं शून्य क्षितिज से

क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी

टकराती बिलखाती-सी

पगली-सी देती फेरी?

 आंसू ( जय शंकर )

इस तरह के छन्द किसी को भी भाव विह्वलित कर सकते हैं

कल की कुछ घटनाओं की आचार्य जी ने चर्चा की


कल आचार्य जी औरास(उन्नाव में एक स्थान )गये थे जहां भैया मुकेश गुप्त जी द्वारा स्थापित शक्तिपीठ में एक कार्यक्रम में वो आमन्त्रित थे

इसके अतिरिक्त आचार्य जी की 

भैया आशीष जोग से फोन पर कुछ सार्थक चर्चा हुई


सत् का विचार आये और उससे आनन्द की अनुभूति हो यही सदाचार है जैसे भैया नीरज कुमार जी का युगभारती के WhatsApp Groups में पुनः शामिल होना अत्यन्त सुखद रहा


दैहिक भौतिक दैविक कहीं भी हम मन का विस्तार पटल पा लेते हैं तो जो आनन्द की अनुभूति होती है वह अवर्णनीय है


हम अमीबा से विकसित हुए हैं? नहीं

हम अवतार हैं और यदि हम अवतार हैं तो उद्धार से ज्यादा कर्म की तरफ चैतन्य जगायेंगे


दीनदयाल जी ने कई बार कच्ची लौकी खाई जली रोटियों को खाने के पीछे कारण बताया कि ये फायदा करेंगी दीनदयाल जी को न वेश की न रूप की न पेट की चिन्ता थी चिन्ता थी समाज से अपना पराया कैसे समाप्त हो

ब्रह्म की अनुभूति कहीं भी हो सकती है अन्न भी ब्रह्म है



आदौ श्रद्धा ततः साधुसंगोऽथ भजनक्रिया।

ततोऽनर्थनिवृत्तिः स्यात्तत्तो निष्ठा रुचिस्ततः।।

अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाऽभ्युदञ्चति।

साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत् क्रमः।।

की आचार्य जी ने व्याख्या की

आत्मगुरुत्व को पुनः इंगित किया


आज का उद्बोधन कैसा लगा इस पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें