16.2.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 16/02/2022 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है प्रतिशिष्ट आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 16/02/2022

  का  सदाचार संप्रेषण 




https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w


https://t.me/prav353


प्रतिदिन की यह सदाचार वेला आचार्य जी के अनुभवों पर आधारित है इसलिये हमें इसका श्रवण कर अधिक से अधिक लाभ लेने का प्रयास करना चाहिये



स्वाध्याय का विषय कुछ भी हो सकता है  देश,समाज,शरीर का उल्लास, भविष्य की योजनाएं आदि



कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;

आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।

पञ्चवटी मैथिली शरण गुप्त


अपने आप मन में संवाद, विवाद चलते रहते हैं


अपने ही शरीर में सृष्टि संचालित होती रहती है

परमात्मा किसी किसी में इन्हीं अनुभूतियों को लेखन भाषण, गायन में अभिव्यक्ति देने की क्षमता दे देता है


येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।


किसी कवि ने यह लिख तो दिया लेकिन पशु भी पृथ्वी पर भार नहीं है अपितु पृथ्वी का शृंगार है


जिसको यह अनुभव होने लगता है उसे पूर्ण आनन्द की अनुभूति होने लगती है यही मोक्ष की अवस्था है


तुलसीदास की विनयपत्रिका में रहस्य, सिद्धान्त, विचार और विनय की पराकाष्ठा है


कबहुँक अंब, अवसर पाइ। 


मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ॥ 


दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ। 


नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ॥ 


बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ। 


सुनत राम कृपालु के मेरी बिगरिऔ बनि जाइ॥ 


जानकी जगजनिन जनकी किये बचन सहाइ। 


तरै तुलसीदास भव भव नाथ-गुन-गन गाइ॥


यहां मां सीता को आधार बनाया है

इसकी व्याख्या करते हुए आचार्य जी ने बताया रूपकमय संसार के रहस्य को जानने की चेष्टा करते हैं तो लगता है सर्वत्र विभु आत्मा ही संसार में समाया हुआ है


वह कभी राम के रूप में कभी कृष्ण के रूप में कभी अपने ही माता पिता के रूप में कभी आचार्य के रूप में प्रस्तुत हो जाता है

यही श्रद्धा जब राष्ट्र में समाहित हो जाती है तो यह भूमि का खंड मात्र न दिखकर साक्षात् देवभूमि दिखाई देती है


मीराबाई का जीवन अद्भुत है तुलसी ने एक विलक्षण रूपकमय छंद लिखा जिसको राम अर्थात् राष्ट्र प्रिय नहीं है उसे त्याग दें...


जाके प्रिय न राम-बदैही। 


तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥ 


तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी। 


बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥ 


नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य कहौं कहाँ लौं। 


अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥ 


तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो। 


जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥


जिसको राष्ट्र के प्रति लगाव हो उसका पल्ला पकड़िये


हमें इनके अर्थों की गहराइयों में जाना चाहिये जिससे हमारा चिन्तन बढ़ेगा


इस संप्रेषण को आत्मसात् करके यदि हम व्यावहारिक जगत में उतार दें तो यह अत्यन्त लाभप्रद होगा


राम कहत चलु , राम कहत चलु , राम कहत चलु भाई रे ।


नाहिं तौ भव - बेगारि महँ परिहै , छुटत अति कठिनाई रे ॥१॥


बाँस पुरान साज सब अठकठ , सरल तिकोन खटोला रे ।


हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद मंद मोल बिनु डोला रे ॥२॥


बिषम कहार मार - मद - माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे ।


मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझोरा रे ॥३॥


काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे ।


जस जस चलिये दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे ॥४॥


मारग अगम , संग नहिं संबल , नाउँ गाउँकर भूला रे ।


तुलसिदास भव त्रास हरहु अब , होहु राम अनुकूला रे ॥५॥


इस संसार की समस्याओं का समाधान करते हुए हम मार्ग खोजते हैं


संसार की असारता को समझने की आवश्यकता है, मृत्यु एक विश्राम स्थल है


हमारे अन्दर का भाव जाग्रत हो जिससे हम राष्ट्र के संरक्षण संवर्धन विकास के लिये तैयार हों ताकि सारे विश्व का  विनाश शान्त हो