अभिरूप आचार्य श्री ओम शंकर जी द्वारा प्रोक्त प्रातिदैवसिक सदाचार संप्रेषण परमात्मा की रची हुई अवगमनातीत विहिति है
इन वदन्तियों में प्रवाहित ज्ञान -धुनि में निमज्जन करते एक दो नहीं अपितु स्फिर स्पृहयालु श्रोता मिल जाएंगे l l
इन श्रद्धालुओं को ये कभी नीरस नहीं लगते
तो प्रस्तुत है आज दिनांक 23/09/2021 का उद्बोधन
भाव यदि शक्तिसंपन्न होता है तो विचारों में ऊष्मा होती है l
हमारा हिन्दू जीवन दर्शन अत्यन्त दिव्य है l
आज आचार्य जी ने श्रीमद्भगवद्गीता में 17 वें अध्याय के निम्नलिखित श्लोकों की व्याख्या की
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14।।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।।
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै: ।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तै: सात्विकं परिचक्षते ।।17।।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्।।17.18।।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने मानस का एक प्रसंग बताया
सैनिक भाव श्रीराम के जीवन से सीखें l
शरीर साधन है तो अच्छा है और यदि समस्या बन जाता है तो हम शिथिल हो जाते हैं