प्रस्तुत है प्रवर्तिन् आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 02/01/2022
का सदाचार संप्रेषण
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संसार में रहते हुए सभी के साथ कारण और कार्य संयुक्त हैं लेकिन बुद्धिमत्तापूर्वक,विचारपूर्वक किसी काम को सुलझा लेना पुरुषार्थी और विवेकसंपन्न व्यक्ति के लक्षण हैं
विवेक समाधि के पास की अवस्था है
संपूर्ण संसार को समझकर आत्मस्थ होने का भाव जहां विकसित हो जाए वह समाधि की अवस्था है
समाधि का अनुभव यद्यपि आनन्द का विषय है लेकिन समझाने में अत्यन्त दुरूह है
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल को रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥
यह सूरदास जी ने वल्लभाचार्य को गाकर बताया है
(देह पर अभिमान करने वालों को अव्यक्त- उपासना कठिन लगेगी अव्यक्त ब्रह्मा का रूप जाति कुछ नहीं है मन वहां ठहर ही नहीं सकता इसलिए सूरदास सगुण ब्रह्म श्रीकृष्ण की लीलाओं को गाना सही समझते हैं)
इसे सुनकर वल्लभाचार्य को लगा कि सूर ज्ञान के द्वार तक पहुंचा हुआ भक्त है इसकी तो सहायता अवश्य ही करनी चाहिए
विवेकपूर्वक जीवन जीने पर हमें यह अकल आ जाती है कहां किससे किस तरह का व्यवहार करना
लेकिन सारे व्यवहारों में प्रेम और सद्भाव का सूत्र जिनका टूट जाता है वे समाज के लिए समस्या हो जाते हैं
आत्मीयता का सूत्र कभी खण्डित न करें
यह हम लोगों की संस्कृति है
हमारे ऋषितुल्य कवियों ने कई स्थानों पर इसकी अभिव्यंजना की है
किष्किन्धा कांड में ऋतु का वर्णन देखते ही बनता है जिसे
ज्ञान की दिशा और दृष्टि से भी जोड़ा है
बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।
बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥2॥
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥
भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥3॥
समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥
सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥
सांसारिक व्याकुलता से ग्रसित लोगों को आत्मचिन्तन की आवश्यकता है
पद प्रतिष्ठा धन सम्मान नहीं मिलने पर वे व्याकुल हो जाते हैं
सहज संतों के पास तो पद भी नहीं होते लेकिन उनके पास जाकर बहुत लोगों को शान्ति मिलती है
कभी किसी स्थान पर शान्ति मिलती है कभी किसी समय पर शान्ति मिलती है
यह सब चक्र चलता रहता है इन सबका आधार परमात्मा है जो क्रियाशील भी है और क्रियामुक्त भी है क्रियाहीन नहीं
हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारी भाषा बहुत उर्वर है भाव बहुत गहरे हैं
गूगल गुरु' के नाम से प्रसिद्ध वृंदावन के दो साल दस माह के गुरु उपाध्याय की चर्चा आचार्य जी ने की
पिण्ड हमारा शरीर भी है और ब्रह्माण्ड भी पिण्ड है
संसार को संसार की दृष्टि से
और विचार को विचार की दृष्टि से भाव में लिप्त होकर हम सब कुछ प्राप्त करें