4.1.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 04/01/2022 का सदाचार संप्रेषण

 चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण l

ता ऊपर सुल्तान है,मत चूके चौहान।।


प्रस्तुत है  सानु आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 04/01/2022

  का सदाचार संप्रेषण 




https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w


https://t.me/prav353



शिक्षक पढ़ाता तो अनेक विद्यार्थियों को है लेकिन किसी किसी को उसका भाव लग जाता है

समान वृत्ति यदि जिज्ञासु है और ज्ञानोन्मुख है तो मेल मिल जाता है

आचार्य जी ने यह बात भैया पवन रामपुरिया को लेकर की   जिन्होंने आचार्य जी से प्रेरित होकर गीता कंठस्थ कर ली थी  और उन्हें यह कभी नहीं लगता कि परमात्मा भी गलती कर सकता है

जब कि यदि हमारा मोह किसी से बहुत अधिक हो जाता है, हमारी कामनाएं किसी से बहुत अधिक संयुक्त हो जाती हैं और उसका नुकसान हो जाए तो हम शंका करने लगते हैं कि परमात्मा ने गलती कर दी है


इसके लिए आचार्य जी ने एक और प्रसंग बताया जिसमें किसी का प्रश्नपत्र खराब हो गया तो वह देवी जी को बुरा भला कहने लगा 


संसार मिले जुले भावों का है


हमें यह समझना चाहिए कि हमें करना क्या है और यही धर्म है


गीता में


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।


स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।


भली प्रकार आचरण में लाये हुए दूसरे  धर्म से गुणरहित स्वधर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्म में तो मरना भी कल्याण करने वाला है और दूसरा  धर्म भय देने वाला है।


धर्म और कर्म एक दूसरे से संयुत हैं


हमें अपने स्वरूप को किस प्रकार बदलना है इसके लिए एक सूक्ति है


लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् ।

प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ॥



आचार्य जी ने गीता के कुछ और छन्द लिए



अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।


अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।3.36।।


अर्जुन बोले -  तो यह मानव न चाहता हुआ भी बलात् लगाये हुए की तरह किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ?


काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।


महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3.37।।


रजोगुण से उत्पन्न महापापी और बहुत अधिक खाने वाले काम से ही तुम्हें वैर रखना है


धूमेनाव्रियते वह्निर्यथाऽऽदर्शो मलेन च।


यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।3.38।।


धुएँ से आग और मैल से मङ्कुर ढक जाता है जेर से गर्भ ढका रहता है,   उसी तरह  काम के द्वारा यह  विवेक ढका हुआ है।



आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।


कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39।।


इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होने वाले विवेकियों के वैरी इस काम के द्वारा मनुष्य का विवेक ढका हुआ है।

हम सब कर्म मार्ग के पथिक हैं और धर्म के स्वरूप को समझने का प्रयास भी करते हैं आचार्य जी ने परामर्श दिया कि ध्यान का अभ्यास करें

इसके अतिरिक्त 

परमात्मा विकारी होता है तो क्या करता है?

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आदि जानने के लिए सुनें