1.10.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 1 अक्टूबर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।

गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥

जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं।

नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं॥2॥


प्रस्तुत है राष्ट्र -विच्छाय आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 1 अक्टूबर 2022

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

सार -संक्षेप 2/64


विच्छायः =रत्न


इन सदाचार संप्रेषणों का उद्देश्य यही है कि 

इन्हें सुनकर गुनकर विचारकर चिन्तनकर  हम अपनी शक्ति बुद्धि  कौशल का अनुभव करें 

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कठिन है नापना इस अटपटे संसार की राहें

बची है हाथ में सीपी लहर में गुम हुई मोती



और इसी मोती की खोज गम्भीर महायोगी आदि शंकराचार्य ने अद्वैत सिद्धान्त के माध्यम से की

 उन्होंने कहा सत्ता के चार प्रकार हैं


मिथ्या, प्रातिभषिक, व्यावहारिक, पारमार्थिक


आचार्य जी ने इनकी व्याख्या की

हमें भी इसी प्रकार की अनुभूतियों में प्रवेश करना चाहिये जिसके लिये हम लोग कुछ समय निकालें ताकि हमारी आत्मशक्ति आत्मविश्वास बढ़े



भगवान् राम के चरित्र में सब प्रकार के सद्गुणों का समावेश कर तुलसी ने  अद्भुत कौशल प्रदर्शित किया है

आइये एक बार पुनः अरण्यकांड में प्रवेश करते हैं



जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा॥

देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई॥3॥

के उत्तर में राम जो कहते हैं वैसे ही उत्तर हमारे अन्दर से उद्भूत होने चाहिये 


हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहीं॥

रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं॥5॥

तुम्हारे जैसे दुष्ट जानवर हम लोग खोजते हैं काल से भी युद्ध कर सकते हैं



जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक॥

जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू॥6॥


यद्यपि हम मनुज हैं लेकिन दैत्यों का नाश करने वाले और मुनियों की रक्षा करने वाले हैं, हम बालक  दिखते हैं किन्तु दुष्टों को दण्ड देने वाले। यदि बलहीन हो तो वापस लौट जाओ। युद्ध में पीठ दिखाने वाले किसी व्यक्ति को मैं नहीं मारता



तब चले बान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल॥

कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥



अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर॥

भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ॥2॥



तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि॥

आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार॥3॥


रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर संधानि॥

छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच॥4॥


महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।

सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥

सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्‌यो।

देखहिं परसपर राम करि संग्राम रिपु दल लरि मर्‌यो॥4॥

(ऐसे संमोहास्त्र छोड़ दिये  जाते हैं जैसे यहां कि राम समझकर वे दुष्ट आपस में ही मरने कटने लगे )




इस रामकथा के माध्यम से आचार्य जी यही संदेश देना चाहते हैं कि हम राम का रामत्व जानें


सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।

जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥ 31॥



हे तात! सीता हरण की बात पिताजी से न कहिएगा। यदि मैं राम हूँ तो दशानन परिवार सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा

ये हैं राम




अनुशासन प्रेम आत्मीयता आत्मविश्वास हमारे यहां घर घर में व्याप्त रहा है इसी कारण अनेक प्रहारों के बाद भी हम अक्षयवट के समान खड़े रहे