2.10.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 2 अक्टूबर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 अबलौं नसानी, अब न नसैहौं। राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं॥ पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहों। स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं॥ परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं। मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं॥




प्रस्तुत है राम-सात्वत आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 2 अक्टूबर 2022

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

सार -संक्षेप 2/65


सात्वत =भक्त



अबलौं नसानी, अब न नसैहौं........



अब तक तो यह उम्र बेकार चली गई लेकिन अब इसे नष्ट नहीं होने दूँगा। भगवान् राम की कृपादृष्टि से संसार रूपी रात बीत गई है, अब जागने के बाद पुनः (मायामय) बिस्तरा नहीं बिछाऊँगा। मुझे राम नाम की अतिसुंदर चिंतामणि प्राप्त हो गई है। उसे हृदयरूपी हाथ से कभी नहीं गिरने दूँगा। राम जी का जो पावन श्यामसुंदर रूप है उसकी कसौटी पर अपने चित्तरूपी सोने को कसूँगा। जब तक मैं इंद्रियों के अधीन था, तब तक  मुझे मनमाना नाच नचाकर मेरी बड़ी हँसी उड़ाई गई , लेकिन अब इंद्रियों को जीत लेने पर उनसे अपनी हँसी नहीं कराऊँगा। अब तो प्रण करके अपने मनरूपी भौंरे को राम जी के चरण-कमलों में लगा दूँगा।


भारत की मनीषा संघर्षों से कभी डरकर रुकी नहीं और अपने जीवन के सोपानों पर चढ़ती चली जा रही है


यदि हम सांसारिक प्रपञ्चों से हटकर कुछ समय इस सदाचार वेला के लिये निकाल लेते हैं तो यह हमारे लिये अत्यन्त लाभकारी है


राम जी के संघर्षों समस्याओं सफलताओं पर   दृष्टिपात कर हम उनसे प्रेरणा लें इसी मनुष्यत्व इसी रामत्व की अनुभूति इस वेला का उद्देश्य भी है

कठिन समय आने पर बुद्धि का मालिन्य न रहे इसकी प्रार्थना करें और महसूस करें कि हम बहुत क्षमतावान हैं हर समस्या का समाधान खोजने में सक्षम हैं



आइये राम -कथाप्रबन्ध में प्रवेश करते हैं

कथा के बोधतत्व में प्रवेश करके इसका रसपान करते हुए आनन्द प्राप्त करें और अपने अन्दर की शक्ति को तत्व को जाग्रत करें


अरण्य कांड में आगे


हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।

अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥ 20(ख)॥


सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥

पंचबटीं बसि श्री रघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥2॥

इस  मोक्ष देने वाली पंचवटी का कवि हृदयराम ने बहुत अच्छा वर्णन किया है


आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम लोग गीतावली भी पढ़ें


धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥

बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥


अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥

सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा॥4॥


सूपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति।

गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति॥22॥


सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥

खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता॥1॥


सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥

तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥2॥


देव समूह को आनंदित करने वाले और इस धरा का भार हरण करने वाले भगवान ने  यदि अवतार ले लिया है तो मैं  उनसे हठपूर्वक वैर करूँगा और उनके बाण  से प्राण त्यागकर इस भवसागर से तर जाऊँगा


रावण को कर्म के स्वभाव घेरे रहते हैं लेकिन था तो वह ऋषि का पुत्र ही

इसलिये जन्म के स्वभाव के कौंधने से उसका ज्ञान कभी कभी खुलता है



सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥

तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥



पावक अर्थात् अग्नि में निवास करने का भौतिक अर्थ है अपने अन्दर का तेजस जाग्रत करना


जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥

निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥