प्रस्तुत है अन्तर्वाणि ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 28 फरवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण
*९४४ वां* सार -संक्षेप1 बड़ा विद्वान्
साधना
साधना न व्यर्थ कभी जाती, चलकर ही मंजिल मिल पाती,
फिर क्या बदली क्या घाम है, बढ़ना ही अपना काम है।।
साधनों की अपेक्षा अधिक उत्कृष्ट है साधक आचार्य जी की ये सदाचार वेलाएं हमारे मन बुद्धि विचार कर्म जीवन के लिए आनन्द प्रदान करने वाली साधना की भूमिका हैं
संसार का कोई भी कार्य व्यवहार जब आनन्द के साथ किया जाता है तो समस्याओं से भरा यह संसार रूपी आगार सुहावना लगने लगता है
साधना के तत्त्व को जो लोग संस्पर्श कर लेते हैं उनके जीवन सफल हो जाते हैं जैसे नानाजी देशमुख
(चंडिकादास अमृतराव देशमुख )
(जन्म : 11अक्टूबर 1916, मृत्यु : 27 फ़रवरी 2010)
जो जीवन पर्यन्त दीनदयाल शोध संस्थान के अन्तर्गत चलने वाले विविध प्रकल्पों के विस्तार हेतु कार्य करते रहे।
और चन्द्रशेखर आजाद (23 जुलाई 1906 — 27 फ़रवरी 1931)
(कल इन दोनों महान् विभूतियों की पुण्य तिथि थी )
जो साधन हमें मिलें वो हमारी साधना का आधार हों हम साधनों में मग्न न हों अन्यथा साधना विस्मृत हो जाएगी
आइये साधनारत होने के लिए, प्रेरणा प्राप्त करने हेतु, महानता की अनुभूति करने के लिए, बड़े से बड़े काम को करने के लिए हम सक्षम है इस अनुभूति के लिए, रामात्मक भाव का और गुरुत्व का अनुभव करने हेतु, साथ ही तपस्विता से संयुत स्थिर यशस्विता पाने के लिए प्रवेश करें आज की वेला में
प्रश्नकर्ता अपनी जिज्ञासा यह पूछकर
केनेषितं पतति प्रेषितं मनः। केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः।
केनेषितां वाचमिमां वदन्ति। चक्षुः श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति ॥
किसके द्वारा प्रेषित यह शर के समान मन अपना लक्ष्य भेदता है? किसके द्वारा नियुक्त प्रथम प्राण अपने मार्ग पर आगे बढ़ता है? किसकी प्रेरणा से प्रेरित वाणी मनुष्य बोलते हैं ? वह कौन सा देव है जिसने आंख और कान को उनकी क्रियाओं में नियुक्त कर दिया है ?
शमित करना चाहता है तो गुरु से उसे रहस्यात्मक उत्तर मिलता है
श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यत्। वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य प्राणः।
चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः। प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥
वह जो हमारे श्रोत्र का श्रोत्र (अर्थात् श्रवण) है, हमारे मन का जो मन है, हमारी वाणी के पीछे जो वाक् है, वही हमारे प्राण का प्राण है और हमारी आंख की आंख है। ज्ञानी इससे परे पहुँचकर मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं और इस लोक से प्रयाण करके वे अमर हो जाते हैं।
इस शक्ति इस तत्त्व इस रामत्व का चिन्तन हमारे देश में महान् जनों द्वारा बहुत हुआ है
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम्। महाजनो येन गतः स पन्थाः।
महान् जन वे हैं जिन्हें अध्यात्म को जानने की इच्छा है जिनके अन्दर ईश्वरत्व की अनुभूति की निरन्तर चल रही जिज्ञासा है और कार्य व्यवहार करते समय जिनके भाव और भक्ति उनके साथ संयुत रहती है
कहा कहो छबि आजुकी, भले बने हो नाथ। तुलसी मस्तक तब नवै, धरौ धनुष शर हाथ॥ कहने वाले तुलसीदास जी के मन में
मानस को रचने की एक अद्भुत भावना उत्पन्न हुई और उन्होंने राम नाम के मर्म को लिख दिया
आचार्य जी ने परामर्श दिया कि महान् जनों की जीवनियां हम लोग अवश्य पढ़ें अध्ययन स्वाध्याय में रत हों
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया नीरज जी भैया अमित जी भैया अंशुल जी का नाम क्यों लिया लोमश ऋषि और इन्द्र का क्या प्रसंग था जानने के लिए सुनें