चलो प्रवीर देश के सघन गहन प्रचार हो
अखंड हिन्दू राष्ट्र के स्वरूप का विचार हो
प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष अष्टमी / नवमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 30 अक्टूबर 2025 का सदाचार संप्रेषण
*१५५४ वां* सार -संक्षेप
मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ३६
अहंकार को त्याग आपस में हम प्रेम और आत्मीयता का विस्तार करें
हनुमान जी की प्रेरणा तथा महापुरुषों के तप, त्याग और साधना के फलस्वरूप जो हमारी युगभारती संस्था अस्तित्व में है, वह केवल एक संस्था नहीं, अपितु एक उच्च आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और रचनात्मक चेतना का जीवंत स्वरूप है। इसका उद्भव साधारण सामाजिक प्रयोजन से नहीं, अपितु राष्ट्र,धर्म और मानवता की सेवा के दिव्य संकल्प से हुआ है। हमारी इस संस्था ने दीनदयाल जी के अधूरे कार्यों को पूर्ण करने का प्रण किया है l संघ की तरह हमने भी भारत देश को परम वैभव पर पहुंचाने का संकल्प लिया है l युगभारती मां भारती के मौन का स्वर है l इस संस्था का वास्तविक स्वरूप वाणी और लेखनी से पूरी तरह व्यक्त नहीं किया जा सकता यह अनुभव और आचरण का विषय है। भावना जब विश्वास बनकर खड़ी होती है तो परमात्मा सहायता करता ही है l युग भारती नाम की यह परिकल्पना इसलिए वर्णनातीत कही जा सकती है क्योंकि यह किसी एक आयाम में सीमित नहीं यह शिक्षा, स्वास्थ्य,स्वावलंबन, सुरक्षा आदि को समेटे हुए, समय की पुकार बनकर खड़ी है।
आचार्य जी नित्य प्रयास करते हैं कि हमारे अन्दर शक्ति और भक्ति उत्पन्न हो l अपने अस्तित्व का भान रखे बिना आपस में हम प्रेम और आत्मीयता का विस्तार करें ऐसा प्रेम जैसा भगवान् राम और भरत में था
मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी। कबिकुल अगम करम मन बानी॥
परम प्रेम पूरन दोउ भाई। मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥
प्रेम और मिलन की अनुभूति को कैसे शब्दों में बताया जा सकता है? यह विषय तो कवियों की कल्पना, मन और वाणी की भी पहुँच से परे है। दोनों भाई (राम और भरत) परस्पर इतने गहरे प्रेम से परिपूर्ण हैं कि उन्होंने अपने मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार तक को भूलकर एक-दूसरे में पूर्ण समर्पण कर दिया है। यह प्रेम सांसारिक नहीं, अपितु आत्मिक और दिव्य स्तर का है, जहाँ व्यक्ति अपने अस्तित्व का भी भान नहीं रखता, केवल प्रेम ही रह जाता है।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भारती जी,कालिका जी, बूजी आदि का उल्लेख क्यों किया, अलादीन के चिराग की चर्चा किस संदर्भ में हुई जानने के लिए सुनें