29.10.25

प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक शुक्ल पक्ष सप्तमी/ अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२ तदनुसार 29 अक्टूबर 2025 का सदाचार संप्रेषण *१५५३ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी* का आज कार्तिक  शुक्ल पक्ष सप्तमी /अष्टमी विक्रमी संवत् २०८२  तदनुसार 29 अक्टूबर 2025 का सदाचार संप्रेषण

  *१५५३ वां* सार -संक्षेप


मुख्य विचारणीय विषय क्रम सं ३५

संघटित रहने का प्रयास करें


मनुष्य मूलतः एक सामाजिक एवं संबद्ध प्राणी है। वह न तो शारीरिक रूप से, न ही मानसिक अथवा आध्यात्मिक रूप से पूर्णतः अकेला रह सकता है। यहाँ तक कि जब कोई साधक गिरिकंदराओं में जाकर एकांत साधना करता है, तब भी वह वास्तव में अकेला नहीं होता। वह अपने भीतर स्थित आत्म के साथ अर्थात् परमात्मा के साथ संवाद करता है। वह अपने चिंतन,मनन, ध्यान,धारणा, निदिध्यासन और भावों के सहचर्य में होता है।


इस सत्य के आधार पर स्पष्ट होता है कि संघटन  (संगठन )परमात्मा का एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग है और मनुष्य के अस्तित्व का आवश्यक तत्त्व है। इसका अर्थ केवल बाह्य सामाजिक एकता नहीं, अपितु आत्मिक, वैचारिक और भावनात्मक समन्वय भी है।  

जब व्यक्ति अपने भीतर भी सह-अस्तित्व को अनुभव करता है, तब वह समाज में भी सह-अस्तित्व, सहयोग और समरसता को आगे बढ़ाता है।


जब कोई संघटन को त्यागकर विघटन की ओर बढ़ता है, तो उसका मूल कारण होता है 'मैं' का भाव — जैसे कि मैं ही यह कार्य कर रहा हूँ, यह मेरा धन है, मेरा श्रम है। यह अहंकार ही विभाजन की जड़ बनता है। इसके विपरीत यदि यह भाव रहे कि सब कुछ भगवान् की प्रेरणा से हो रहा है, मैं तो मात्र एक माध्यम हूँ, तब संघटन की भावना दृढ़ होती है।

इस प्रकार, संघटन केवल कार्य का माध्यम नहीं, बल्कि जीवन का दार्शनिक एवं आध्यात्मिक आधार है।  

यह हमें आत्मकेंद्रित नहीं, व्यापक दृष्टिकोण और सहभाव की ओर ले जाता है।  

जहाँ  भक्ति के पंथ पर चलते हुए संघटन होता है, वहीं विकास, सुरक्षा, शांति और समृद्धि संभव होती है। युगभारती इसी कारण महत्त्वपूर्ण है l तुलसीदास जी ने भी संघटन को महत्त्व दिया क्योंकि उस समय की विषम परिस्थितियों में हम सनातनधर्मियों को संघटित रहने की अत्यन्त आवश्यकता थी l

संगठन का उत्तरदायित्व जिस व्यक्ति पर होता है, उसमें अत्यंत गहराई, धैर्य और दूरदृष्टि होनी चाहिए। उसे केवल लोगों को एकत्र करना ही नहीं आता, बल्कि उनकी योग्यताओं को पहचानकर उन्हें उचित दिशा देना भी आता है। संगठनकर्ता को सहिष्णु, समन्वयी और प्रेरक होना चाहिए, ताकि वह भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के लोगों को एक लक्ष्य की ओर अग्रसर कर सके। ऐसा व्यक्ति ही संगठन को स्थायित्व और शक्ति प्रदान कर सकता है।भगवान् राम ने यही किया l यही हमें करना है क्षेत्र कोई भी हो l 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया नीरज जी भैया राघवेन्द्र जी भैया वीरेन्द्र जी का उल्लेख क्यों किया डा श्यामबाबू श्री लोहिया जी (LML) की चर्चा क्यों हुई जानने के लिए सुनें