उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्| वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः ||
प्रस्तुत है मधुराक्षर आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 13/03/2022
का सदाचार संप्रेषण
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हम लोग देख रहे हैं कि आचार्य जी प्रायः जब भी अपनी भावनाएं संप्रेषित करते हैं उनमें यही प्रकट होता है कि कभी तो भारत का दिव्य रूप सामने आयेगा
इसका सपूत हरदम विश्वासी होता है
आचार्य जी कहते है जब भी सपनों को हकीकत में बदलने का प्रयास किया कल्पनाओं को विस्तार देने का प्रयास किया तो इतने अवरोध सामने आ गये कि सपने सपने ही रह गये
जब विद्यालय प्रारम्भ हुआ तो नये नये चन्द्रगुप्त गढ़ने का विचार मन में आया विद्यालय विस्तार लेगा तरह तरह के विकास के पक्ष उपपक्ष खुलते जायेंगे ऐसे विचार भी मन में आये
आज भी आचार्य जी हम लोगों के व्यवहार, स्नेह, आदर और श्रद्धा के कारण उत्साह से लबरेज हैं
आत्मस्थ होना अतिआवश्यक है इन्हीं भावनाओं को आचार्य जी ने कल एक कविता के माध्यम से व्यक्त किया जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं
सपनों के पंख नहीं होते, होते न सत्य के पांव कभी
वीरों के लेंहड़ न होते हैं संतों के होते गांव कभी?
क्या कहीं प्रतिष्ठा की बाजारें लगती हैं
पौरुष का कहीं न होते देखा मोल -तोल
पुरुषार्थ पराक्रम मौन मनन में रत रहता
पर संकट में अड़ जाता अपना वक्ष खोल
जो नियमनीतियों की परिभाषा गढ़ते हैं
वो शायद ही उनका परिपालन कर पाते......
आज भी प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन लोग उन्हें जान नहीं पाते और वे उन्हीं जीवात्माओं में समाई रहती हैं
जिनमें भारतीयता की अनुभूति हो उन्हें एकत्र करें
अपने कार्यव्यवहार भारत मां के चरणों में समर्पित करें
लेखन को अतिमहत्त्वपूर्ण बताते हुए आचार्य जी कहते हैं कि लेखन आत्मदर्शन आत्मचिन्तन आत्मप्रेरणा आत्मशक्ति है