विषुवत-रेखा का वासी जो
जीता है नित हाँफ-हाँफ कर
रखता है अनुराग अलौकिक
वह भी अपनी मातृभूमि पर
ध्रुव-वासी जो हिम में तम में
जी लेता है काँप-काँप कर
वह भी अपनी मातृभूमि पर
कर देता है प्राण निछावर।
तुम तो हे प्रिय बंधु! स्वर्ग से
सुखद, सकल विभवों के आकर
धरा-शिरोमणि मातृभूमि में
धन्य हुए हो जीवन पाकर
तुम जिसका जल-अन्न ग्रहण कर
बड़े हुए लेकर जिसका रज
तन रहते कैसे तज दोगे?
उसको हे वीरों के वंशज!
प्रस्तुत है कृपणवत्सल आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 29 अप्रैल 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
जिस समय हमारा मन अध्यात्म में अधिक प्रविष्ट रहता है तो हमें सुस्पष्ट रहता है कि हम शरीर नहीं हैं
यद्यपि हम शरीर नहीं हैं लेकिन तब भी शरीर हमारा है इसके प्रति दुर्व्यवहार दुर्लक्ष्य और भ्रम नहीं रहना चाहिये
शरीर हमारा सहयोगी है इसे ठीक रखना अत्यन्त आवश्यक है इसे गतिमान मतिमान रखें केवल खाने और सोने तक सीमित न रखें इसे साधन बनाएं इसे साधनायुक्त बनाने के लिये सही प्रकार का भोजन सही वातावरण मिले इसका ध्यान दें
मन को मारना तन को कष्ट पहुंचाना विचार को गलत दिशा में भेजना उस भाव के विपरीत है जहां कहा गया कि
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
(हे अर्जुन ! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को न त्यागें क्योंकि सारे कर्म दोष से आवृत हैं धुएं से अग्नि की तरह)
यह संसार सार और असार का मिश्रित रूप है सुधीजन कहते हैं कि इसमें उलझें नहीं
तुलसीदास कहते हैं
भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
पूजन अर्चन उपासना ध्यान जप साधना के ये सारे अंग शरीर को शुद्ध और सिद्ध करने के उपाय हैं
विद्यालय से संयुत बहुत सी स्मृतियां हमारे मन मस्तिष्क में हैं आचार्य जी ने परामर्श दिया कि अच्छी स्मृतियों में हमें जाना चाहिये और बोझिल स्मृतियों से दूर रहना चाहिये
भोजन मन्त्र में हम कहते थे
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।....
संसार हमें आनन्द का पालना तब ही दिखेगा यदि हम वर्तमान में रहें अतीत में खीझने और भविष्य में रीझने से संसार समस्याओं का मूल दिखाई देगा
हमारे यहां महापुरुषों की बहुत लम्बी फ़ेहरिस्त है आज भी सिलसिला टूटा नहीं है इस काल्पनिक पावन सत्संग में भी हमें प्रवेश करना चाहिये
आचार्य जी ने मनोरंजन और सत्संग में अन्तर और भक्त का सही अर्थ बताया
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥
भक्ति भाव समर्पण की आत्मानुभूति करें तो हमारे अन्दर उत्साह बल आनन्द उत्पन्न होगा