30.4.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का दिनांक 30 अप्रैल 2022 का सदाचार संप्रेषण

 यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।


सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।2.32।।


प्रस्तुत है षट्प्रज्ञ आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 30 अप्रैल 2022

  का  सदाचार संप्रेषण 




https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w


जिस समय कोई भी भाव जगत में रहता है उसे अपने शरीर की शक्ति का भान नहीं होता है उसके शरीर की शक्ति मानसिक शक्ति में विलीन हो जाती है

उसकी वाणी उसका व्यवहार शक्तिसंपन्न हो जाता है

जब हम किसी भाव का सम्मान करते हैं तो वह भाव बोलता है


जब तक हम खंडित अध्ययन से संयुत रहेंगे तो हम इस तरह की चर्चा करेंगे कि हमारी संस्कृति पांच हजार वर्ष पुरानी है यह निराधार है

हमारी क्षमता कुंद कर दी गई क्यों कि हमारे संस्कारों को लगातार कमजोर किया गया इन संस्कारों को जाग्रत करने के लिये हमें सन्नद्ध होना होगा

आचार्य जी ने आज गीता के कुछ अध्यायों की चर्चा की


गीता का प्रथम अध्याय पूरे ग्रंथ की भूमिका है

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।


मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।

युद्द में ज्ञान की चर्चा अद्भुत है


दूसरे और तीसरे अध्याय में आध्यात्मिक ज्ञान है

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।


तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।


यह देही आत्मा सबके शरीर में सदैव अवध्य है, अतः सभी प्राणियों के लिए तुम शोक करो यह उचित नहीं।

नवें अध्याय में अनन्य भक्ति का वर्णन है 


अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।


साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।



यदि कोई बुरा सा बुरा काम करने वाला व्यक्ति भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।



पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।


तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।।


जो कोई भी भक्त मुझे पत्ता,फूल , फल, पानी आदि भक्ति से अर्पण करता है, उस  भक्त का वह भक्तिपूर्वक अर्पण मैं  स्वीकार करता हूँ।।


आचार्य जी का सदैव प्रयास रहा कि हम समाज का लाभ करें और प्रतिदिन सदाचार संप्रेषण के माध्यम से हम लोगों को अध्यात्म की ओर उन्मुख करने के लिये वे प्रयत्न करते हैं  यह युगभारती की प्राणिक शक्ति है जो इसलिये आवश्यक है ताकि परिस्थितियों की झंझाओं को झेलते हुए हम ऐसे काम करें कि

त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।

गृहाण सम्मुखो भूत्वा प्रसीद परमेश्वर।।

हम सेवाभावी हैं हमारा परम धर्म है कि हम उनकी सेवा करें कि जो ये तक नहीं जानते कि वो कौन हैं

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया शौर्यजीत, भैया आशीष जोग भैया मनीष कृष्णा का नाम क्यों लिया जानने के लिये सुनें