5.6.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का दिनांक 5 जून 2022 का सदाचार संप्रेषण

 करो गिनती कि  अपनी कोठरी में बिल अभी कितने

तभी ही द्वार पर पहरा समझदारी का आयेगा


प्रस्तुत है तपोवृद्ध आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 5 जून 2022

  का  सदाचार संप्रेषण 




https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w


दुष्ट लोगों के उपद्रव,समाज का शैथिल्य , शौर्य के बिना अध्यात्म की अति से उत्पन्न भारत मां पर आये संकट आदि की ओर संकेत करते हुए हम राष्ट्रभक्तों की उचित भूमिका की ओर आचार्य जी प्रतिदिन स्मरण कराते हैं


भारत त्याग बलिदान शौर्य शक्ति का पुंज है l  आचार्य जी बार बार शौर्य प्रमंडित अध्यात्म पर बल देते हैं क्यों कि शौर्य रहित अध्यात्म की अति के कारण हम अपना कर्तव्य भूल गये

हम कोई भी कर्म करें उसे यज्ञ भाव से करें 

गीता में


यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।


भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।3.13।।


उत्पादन किये बगैर समाज के धन पर आश्रित अपराधी व्यक्तियों से  भिन्न व्यक्तियों के विषय में इस श्लोक में वर्णन है। श्रेष्ठ पुरुष यज्ञ भावना से कर्म करने के बाद मिले फल में अपने भाग को  ग्रहण करते हैं और इस प्रकार सब पापों से मुक्त हो जाते हैं।पूर्व समय में किये गये पाप वर्तमान में पीड़ा के कारण हैं तो वर्तमान के पाप भविष्य में दुःखों के कारण बनेंगे। अत समाज में दुखों का अन्त हो इसका एक मात्र उपाय है समाज के जागरूक व्यक्ति यज्ञभावना से  कर्म करें और अवशिष्ट फल को ग्रहण कर सन्तुष्ट रहें ।इसके विपरीत जो केवल अपने लिये ही भोजन पकाते हैं वे पाप को ही खाते हैं।

(https://www.gitasupersite.iitk.ac.in)


अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।


यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।3.14।।


कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।


तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।3.15।।



समस्त प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं अन्न की उत्पत्ति वर्षा से। वर्षा की उत्पत्ति यज्ञ से और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।।


कर्म की उत्पत्ति ब्रह्माजी से होती है और ब्रह्माजी अक्षर तत्त्व से व्यक्त होते हैं। अतः  ब्रह्म सदैव यज्ञ में प्रतिष्ठित है।।

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।


लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20।।


यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।


स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।3.21।।


राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू  कर्म करने के योग्य है।

श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण  देता है,  दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं।


नवोदित पीढ़ी को सुयोग्य शिक्षा और शिक्षा के साथ संस्कार देने के लिए शिशु मन्दिरों की स्थापना हुई

शिक्षा क्षेत्र को जीवन-साधना समझकर कुछ निष्ठावान लोग इस पुनीत कार्य में जुट गए ताकि सजग जागरूक राष्ट्र-सेवी तैयार हों


यज्ञ और गीता के छन्दों का प्रभाव दिखना ही चाहिये

हमारा कार्यव्यवहार नित्य संयमित शौर्यमय उत्साहमय और यज्ञमय होना चाहिये