10.7.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का दिनांक 10 जुलाई 2022 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है निधन -विश्रय आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 10 जुलाई 2022

  का  सदाचार संप्रेषण 



 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

समीक्षा क्रम सं 346



आचार्य जी प्रतिदिन प्रभावी ढंग से सार्थक विचारों को संप्रेषित करते हैं हमारा कर्तव्य है कि हम उनसे प्रेरणा लेकर अपने सद्गुणों में वृद्धि करें जिससे अपनी पीड़ाएं, उलझनें, कुण्ठाएं शमित रहें



एक संगठनकर्ता को जिज्ञासु, स्वाध्यायी,विवेकशील,कर्मानुरागी, विश्वासी, आत्मगोपी और अप्रतिम प्रेमी होना चाहिये साथ ही उसे सचेत, सक्रिय, सतर्क और सोद्देश्य रहना चाहिये


वह आत्मचिन्तन के लिये भी समय निकाले  आत्मचिन्तन की जिज्ञासाओं,मैं कौन हूं मेरा कर्तव्य क्या है और मेरा प्राप्तव्य क्या है,का शमन ही आनन्दमय जीवन का रहस्य है


हम एक लक्ष्य लेकर चल रहे हैं



लक्ष्य तक पहुँचे बिना, पथ में पथिक विश्राम कैसा


लक्ष्य है अति दूर दुर्गम मार्ग भी हम जानते हैं,

किन्तु पथ के कंटकों को हम सुमन ही मानते हैं,

जब प्रगति का नाम जीवन, यह अकाल विराम कैसा ।। 1।।


धनुष से जो छूटता है बाण कब मग में ठहरता,

देखते ही देखते वह लक्ष्य का ही वेध करता,

लक्ष्य प्रेरित बाण हैं हम, ठहरने का काम कैसा ।। 2।।


बस वही है पथिक जो पथ पर निरंतर अग्रसर हो,

हो सदा गतिशील जिसका लक्ष्य प्रतिक्षण निकटतर हो,

हार बैठे जो डगर में पथिक उसका नाम कैसा ।। 3।।


आज जो अति निकट है देख लो वह लक्ष्य अपना,

पग बढ़ाते ही चलो बस शीघ्र हो सत्य सपना,

धर्म-पथ के पथिक को फिर  देव-दक्षिण वाम कैसा ।। 4।।


हम लक्ष्य प्रेरित बाण हैं और 

हमारा निशाना भी सटीक लगना चाहिये जैसे महाराणा प्रताप भाला चलाते थे


(महाराणा प्रताप का भाला और कवच उदयपुर शहर के सिटी पैलेस के संग्रहालय में रखे हुए हैं )


हमारा देश अद्भुत रहा है यहां का युद्ध कौशल बेमिसाल रहा है हमारी शिक्षा चिन्तन विचार साधना अद्वितीय रही है

हमने तो सृष्टि का समय भी मापा है


चार युगों में तुलसीदास जी के अनुसार कलियुग की परिभाषा है



बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥

तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥




कुलवंति निकारहिं नारि सती। गृह आनहिं चेरि निबेरि गती॥

सुत मानहिं मातु पिता तब लौं। अबलानन दीख नहीं जब लौं॥




ससुरारि पिआरि लगी जब तें। रिपुरूप कुटुंब भए तब तें॥

नृप पाप परायन धर्म नहीं। करि दंड बिडंब प्रजा नितहीं॥




धनवंत कुलीन मलीन अपी। द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी॥

नहिं मान पुरान न बेदहि जो। हरि सेवक संत सही कलि सो॥




कबि बृंद उदार दुनी न सुनी। गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी॥

कलि बारहिं बार दुकाल परै। बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै॥


हम अपने कर्तव्य निर्धारित करें संस्कारों से वातावरण को हराभरा बनायें

सद्गुण प्रभावित करते ही हैं

अपने घर को परिवेश को संस्कारमय बनायें पहले स्वयं सद्गुणों को धारण करे


 आचार्य जी ने महायुग मन्वन्तर कल्प आदि की जानकारी दी

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने दीनदयाल विद्यालय में आने से पहले का कौन सा प्रसंग बताया जानने के लिये सुनें