प्रस्तुत है वहति आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 23 जुलाई 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
समीक्षा क्रम सं 359
सदाचार संप्रेषणों को सुनने मात्र से संस्कार जाग्रत नहीं होते वे व्यवहार से जाग्रत होते हैं और व्यवहार स्वयं से और अपने परिवार से प्रारम्भ होना चाहिये
जन्मदिन में मोमबत्तियां बुझाना चिन्तनीय विषय है
भाषा, भूषा वेश पराया
प्रेम और आवेश पराया
घर के चूल्हे हुए विरागी
माँ का दूध हो गया दागी
त्याग” कोष का शब्द,
देश का चिन्तन अर्थ प्रधान हो गया |
हम क्योंकि आत्मसंयमी अध्यात्मवादी हैं तो हमारा जीवन भी उसी तरह का होना चाहिये हमें यह समझना होगा कि भारतवर्ष के संस्कारों का मूल मर्म संपूर्ण विश्व को प्रेरणा देने वाला है भारत विश्व का आत्मा है और आत्मा कभी मरता नहीं
देवों और असुरों का संग्राम चलता ही रहेगा अच्छाइयों और बुराइयों का खेल चलता रहेगा यहां सत रज तम का घालमेल है संसार का यह सत्य है मनीषियों विचारकों चिन्तकों के लिये यह एक अद्भुत विषय है
जो इस विषय को आत्मसात् कर लेते हैं ऐसे लोग चिन्तन कम करते हैं कार्मिक व्यवहार अधिक करते हैं जैसे विवेकानन्द
विदेशी धरती पर अपने भावों से अपनी भाषा से अपने व्यवहार से ऐसा स्थान उन्होंने बनाया कि आज भी वहां पूजे जाते हैं
और भी उदाहरण हैं कर्म का चैतन्य उनमें रच बस गया जैसे क्रान्तिकारियों ने प्राणों की परवाह नहीं की
अन्याय अत्याचार सहन नहीं करेंगे ऐसा निश्चय किया
इन उदाहरणों को शिक्षा के माध्यम से मलिन करना शुरु कर दिया गया विदेशियों के जाने के बाद भी
शिक्षा के स्वरूप का भावनात्मक परिवर्तन बहुत आवश्यक है यद्यपि नई शिक्षा नीति आई
भाषा भाव में संशोधन सदैव संभव हैं शिक्षा में ये संभव हैं शिक्षा एक चैतन्य संस्कार है
और चैतन्य में परिवर्तन संभव हैं
निराशा का जड़त्व समाप्त करने के लिये और हमें उत्साह से भरने के लिये ताकि पताका विश्वविजयी व्योम में लहरा उठे फिर से
आचार्य जी ने जवानी शीर्षक कविता के कुछ अंश सुनाये
जवानी जुल्म का ज्वालामुखी बढ़कर बुझाती है
फड़कते क्रान्ति के नव छन्द युग-कवि को सुझाती है
जवानी दीप्तिमय सन्देश की अद्भुत किरण सी है
सनातन पावनी गंगा बसन्ती आभरण सी है
जवानी के अनोखे स्वप्न जब संकल्प बन जाते
फड़कते हैं सबल भुजदण्ड उन्नत भाल तन जाते
जवानी को न सुख की नींद जीवन भर सुहाती है
जकड़ कर मुट्टियों में वज़ युग-जड़ता ढहाती है | ।9। |
जवानी केसरी बाना लपकती ज्वाल जौहर की
भवानी की भयद भयकार वह हुंकार हर हर की
जवानी का उमड़ता जोश जय का घोष होता है
चमकती चंचला सी खड़्ग वाला रोष होता है
जवानी विन्ध्य के तल में कभी सह्याद्रि पर होती
विजय-पथ की शिलायें बन कभी वह हो सिन्धु पर सोती है|
जवानी के सभी साधन भुजाओं में बसे रहते
शरासन पर चढ़े या फिर सजग तूणीर में रहते | ।१० |
ज़वानी शील के सम्मान की सीमा समझती है
प्रपंचों की शबल चालें समझ तत्क्षण गरजती हैं
जवानी ने जवानी दे बुढ़ापे को बचाया है
लुटा कर स्वयं का मधु गरल अन्तर में पचाया है
जवानी की धरोहर को जवानी ही सँजोती है
धरा में क्रान्ति की तकदीर अपने हाथ बोती है
जवानी को जवानी ने न जब-जब जान पाया है |
तभी गहरा अँधेरा व्योम में भरपूर छाया है| ।११। | |
जवानी जब जवानी को समय पर जान लेती है
स्वयं के शत्रु को जब भी तुरत पहचान लेती है
धरा का तब न घुट-घुट कर सहज सौभाग्य रोता है
किलकता दूध” “अनुभव” शान्ति की सुख नींद सोता है
तभी इतिहास गौरव से भरा अध्याय लिखता है
विहँसती है तभी धरती गगन में तोष दिखता है
विधाता | कुछ करो ऐसा जगे जीवन जवानी का
प्रणव के मंत्र गूँजें और हो अर्चन भवानी का । ।१२। |
अरे, ओ नौजवानों | उठ पड़ो परखो जवानी को
शिवा का शौर्य, गुरु की तेग, बन्दा की रवानी को
महाराणा बनो युग के, करो हंकार जी भर के
गगन में भर उठे गुंजार जय श्री राम, हर हर के
भगे श्रष्टाचण का भूत जग-नव्यवहार पावन हो
परस्पर का जगे विश्वास हर मंजर सुहावन हो
हमारे देश का गौरव क्षितिज में छा उठे फिर से
पताका विश्वविजयी व्योम में लहरा उठे फिर से | |१३ | ।