10.8.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का दिनांक 10 अगस्त 2022 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है निमित्तविद् आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 10 अगस्त 2022

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

सार -संक्षेप 2/12



अपना यह मानव शरीर मन, बुद्धि,चित्त,आत्मतत्त्व के साथ सांसारिक शक्तियों को प्राप्त करके इस संसार में कर्म हेतु कटिबद्ध हुआ है



कुछ मनुष्यों की अनुभूतियां बहुत संवेदनात्मक होती हैं और कुछ की आंशिक या बिल्कुल नहीं


यह अद्भुत वैविध्य है इसमें अतिशयोक्ति नहीं कि सामान्य व्यक्ति में भी संसार और संसारेतर चिन्तन प्रविष्ट रहता है उसे भी परमात्मा की जानकारी रहती है भले ही अनुभूति न होती हो

जिन्हें अनुभूति होती है वे अध्यात्मवादी होते हैं और ये लोग संसार के संजाल  से मुक्त होने का प्रयास करते रहते हैं


आचार्य जी ने स्वामी ईश्वरानन्द तीर्थ जी की चर्चा की जिनके शिष्य रामलला विद्यालय के प्रधानाचार्य पं काली शंकर अवस्थी जी थे

स्वामी जी का अपनी पुत्री से मोह न हो जाये स्वामी जी ने कुम्भ मेला स्थल ही त्याग दिया


संसार के छह विकार काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर से हम जब तक ग्रस्त रहते हैं तब तक हम संसार में रहते हैं और इनसे मुक्त होने पर अध्यात्म में प्रवेश करते हैं

अध्यात्म से ही हम आत्मविश्वासी होते हैं


हम इस संक्रान्तिकाल में भ्रमित और भयभीत न रहें हम जागरूक रहें और लोगों को जाग्रत करें राष्ट्र क्या है हमारा असली इतिहास क्या है


सरौंहां में एक मियां  को प्राप्त पुलिस संरक्षण की ओर संकेत करते हुए आचार्य जी ने बताया कि महाशौर्यसंपन्न दशरथ और आध्यात्मिक शक्ति के प्राचुर्य से भरे हुए जनक के आत्मरत होने पर  गाधि पुत्र राजर्षि ब्रह्मर्षि सृष्टि रचयिता आदर्श शिक्षक विश्वामित्र चिन्तित रहते थे


यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥

बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥


जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥

देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥



गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥


एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥

ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥


बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।

करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥


मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥

करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥


चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥

बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥


पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥

भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥




तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥

केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥



असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥

अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥


इस धरा पर भगवान् राम जो लीला करने आये हैं अब उसका मार्ग प्रशस्त होने जा रहा है


वशिष्ठ जी ने दशरथ जी को समझाया तब उनकी बुद्धि खुली


सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।

जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥208 क ॥


हम भी अपनी भूमिका पहचानें चाहे वह विश्वामित्र की हो चाहे वशिष्ठ की भगवान् राम की

उसी अनुसार इस संक्रान्तिकाल में अपने कर्तव्य का निर्वाह करें