प्रस्तुत है अध्यात्म -चङ्कुण आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 15 सितम्बर 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
सार -संक्षेप 2/48
चङ्कुणः = वाहन
भगवान् की कृपा है कि इन सदाचार संप्रेषणों से हमें अत्यन्त प्रेरक उपादेय उपयोगी जानकारी प्राप्त होती रहती है और प्रतिदिन हम इसकी प्रतीक्षा भी करते हैं
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
संसार में सुख दुःख प्रकाश अन्धकार सुविधा संकट साथ साथ चलते हैं
हमें संसार में संसारी भाव से रहना होता है लेकिन इससे अलग होकर क्षणांश के लिये भी तात्विक स्वरूप में यदि अध्यात्म का सहारा लेकर हम प्रवेश कर जाते हैं तो हमारी जीवन शैली बदल जाती है हमें आनन्द की अनुभूति होने लगती है
हिन्दी भाषा भावना, हिन्दी मय व्यवहार।
हिन्दी मय चिन्तन रहे, हिन्दी मय आचार। ।
यद्यपि हम लोग तत्त्वदर्शी हैं लेकिन व्यवहार स्पर्शी भी हैं
व्यावहारिकता स्वीकारते हुए बहुत से बाहरी देशों के शब्दों का हिन्दी में समावेश हो गया है जैसे चाय कुर्ता आदि
कल हिन्दी दिवस था हम लोग इसे एक दिन मनाते हैं यह अत्यन्त अटपटी बात है न्यायालय में निर्णय अंग्रेजी में लिखे जाते हैं अंग्रेजी बोलने वाला काबिल माना जाता है
दुःखद यह कि भाषा के माध्यम से हमारे रोम रोम में गुलामी भर दी गई
अपने संस्कार भूल गये
हिन्दी हिन्दुस्थान की, है अपनी पहचान।
जो इससे मुँह फेरता , सचमुच निपट अजान। ।
हिन्दी हमारी भाषा है जिस समय देश में स्वातन्त्र्य समर चल रहा था संपूर्ण देश में हिन्दी में ही व्यवहार चल रहा था
लेकिन
हम भ्रमित हुए अस्ताचल वाले देशों को जब देखा..
Father's day mother 's day से इतर हमारा जीवन बहुत संस्कारित था
प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥
भगवान राम का जीवन देखकर हम समझ सकते हैं कि ऐसा संस्कारों से युक्त हमारा जीवन था
रामकथा कृष्णकथा ब्रह्मानन्द की अनुभूति आदि हमारी प्राणिक ऊर्जा है शक्ति भक्ति विश्वास है हमारी श्वास है
हिन्दी दिवस के स्थान पर हिन्दी में व्यवहार करना बहुत आवश्यक है
यदि स्वदेशी स्वरूप होगा तो स्वदेशी चिन्तन व्यवहार होगा
और फिर पुरुषार्थ करते हुए हम आगे बढ़ते चलेंगे और सफल भी होंगे
आत्मस्थ न होकर परस्थ होंगे तो असफल होंगे
क्या हम संस्कृत नहीं सीख सकते? जब कि अंग्रेजी सीख गये लेकिन तोते की तरह इस तरह सीखने से क्या फायदा
जब हम खुद ही श्रेष्ठ नहीं बन पायेंगे तो विश्व को श्रेष्ठ कैसे मनायेंगे
अंग्रेजी यदि विश्व भाषा बन सकती है और हिन्दी को हम राष्ट्र भाषा बनाने के लिये भी तरसते हैं तो यह गम्भीर चिन्तन का विषय है
इन संप्रेषणों के परिणाम भी आने चाहिये आगामी वार्षिकोत्सव के संदेशों में भी स्वदेशी भाव जाग्रत हो
हम अपनी संस्कृति की रक्षा करें इसकी साधना करें सांस्कृतिक जीवन को अपने अन्दर प्रवेश कराने की चेष्टा करें