प्रस्तुत है तकिलारि आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 21 सितम्बर 2022
का सदाचार संप्रेषण
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सार -संक्षेप 2/54
तकिल =जालसाज, धूर्त
अरि = शत्रु
नित्य ही आचार्य जी सांसारिक कार्यों में रत हम मानस पुत्रों के लिये कल्याणकारी, हमें उत्साहित करने वाले,विचारों को प्रखर करने वाले और मन को सुस्थिर करने वाले वचन कहते हैं अभिभाव्यों के प्रति उनकी सचेत रहने वाली दृष्टि अभिभाव्यों को मार्गान्तरण से रोकती है
दीनदयाल विद्यालय की एक समय रही विशिष्ट पवित्रता का चित्र आचार्य जी ने आचार्य श्री जे पी (जागेश्वर प्रसाद जी )जी के प्रसंग (सन् 1982/83 का समय )के माध्यम से खींच दिया
विद्यालय में पैर रखते समय श्री जे पी जी को एक विशेष अनुभूति होती थी एक रिक्शा चालक ने उनसे धन नहीं लिया और उसका कारण बताया कि वो जब भी इस विद्यालय में किसी को छोड़ता है तो उससे धन नहीं लेता है
ऐसी पवित्रता गुरु जी बैरिस्टर साहब बूजी अशोक सिंघल जी आचार्यों की तपस्या का प्रतिफल थी
हमें इसकी अनुभूति होनी चाहिये
आइये अरण्य कांड में प्रवेश करते हैं अरण्य कांड उस सांसारिक लक्ष्य की पूर्ति की भूमिका है जिसके लिये प्रभु राम इस धरती पर अवतरित हुए हैं
सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥5 ख॥
कवियों का कल्पनालोक भावजगत की अभिव्यक्ति है सतीत्व के प्रति कवि की अद्भुत कल्पना के उदाहरण स्वरूप आचार्य जी ने निम्नांकित श्लोक उद्धृत किया
सुतं पतन्तं प्रसमीक्ष्य पावके
न बोधयामास पतिं पतिव्रता ॥
पतिव्रताशापभयेन पीडितो
हुताशनश्चन्दनपङ्कशीतलः ॥
(अपने पुत्र को अग्नि में गिरते हुए देखकर भी पतिव्रता स्त्री ने अपने पति को नहीं जगाया और उसकी सेवा में रत रही। ऐसी पतिव्रता से डरकर अग्नि भी चन्दन की तरह शीतल हो गयी।)
सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
यह एक पक्षीय दिख रहा है लेकिन पद्मपुराण के सृष्टिखंड में पापी पुरुष का भी वर्णन है
सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥
सीता ने यह सब सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक अनुसूया के चरणों में सिर झुकाया तब यशस्वी चर्चित विनम्र राम ने मुनि अत्रि से कहा- आज्ञा हो तो अब दूसरे वन में जाऊँ
जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बंधु मृदु बचन उचारे॥3॥
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥5॥
ऋषि भावुक होते हैं तो अद्भुत स्थिति होती है
आचार्य जी ने भावुक वशिष्ठ का भी उल्लेख किया
हमें समय निकालकर मानस में अवश्य ही प्रवेश करना चाहिये इस मानस को अपने मानस में हमें उतार लेना चाहिये
रामकथा मानस में जो पिरोई गई है वह इस संसार के साथ सात्विक चिन्तन मनन निदिध्यासन अध्यात्म को संयुत कर देती है