22.9.22

आचार्य श्री ओम शंकर जी का दिनांक 22 सितम्बर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।

सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥


श्री रामजी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियों के आश्रमों में जाकर उनको दर्शन एवं भाषण का सुख दिया

*इसी को नेतृत्व का आत्मविश्वास कहते हैं यह राम के चरित्र में हर जगह मिलेगा और इसी को आत्मसात् करने की हमें आवश्यकता है*


प्रस्तुत है आयुतनेत्रिन् आचार्य श्री ओम शंकर जी का आज दिनांक 22 सितम्बर 2022

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

सार -संक्षेप 2/55



आयुतनेत्रिन् =हजार आंखों वाला



इस स्मरणात्मक संसार में हम सांसारिक प्रपंचों में उलझे लोगों को मङ्गलमति प्रदान करने वाली और आत्मानन्द की अनुभूति कराने वाली आचार्य जी की वाणी ध्यान से सुनने का अब अभ्यास होने लगा है


इस समय पितृपक्ष चल रहा है 25 सितम्बर को पितृविसर्जनी अमावस्या है 26 से नवरात्र प्रारम्भ  जिसके नौवें दिन सरस्वती पूजन (आश्विन शुक्ल नवमी )होता है, हो रहे हैं


हिमाद्रि से हिन्द महासागर, अटक से कटक तक फैली यह देवभूमि हमारी जन्मस्थली है  त्यागियों तपस्वियों ऋषियों मनीषियों के प्रति हम कृतज्ञ रहें सदाचार का मूल उद्देश्य यह भी है


हमारे विद्यालय का ध्येय वाक्य


" प्रचण्ड तेजोमय शारीरिक बल, प्रबल आत्मविश्वास युक्त बौद्धिक क्षमता एवं निस्सीम भाव सम्पन्ना मनः शक्ति का अर्जन कर अपने जीवन को निःस्पृह भाव से भारत माता के चरणों में अर्पित करना ही हमारा परम साध्य है l "


भी यही याद दिलाता है


श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः ।

 एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ।


हमें आत्मा को जो प्रिय है उसे पहचानने का प्रयास करना चाहिये


इसी आत्म को तुलसीदास ने पहचाना



भगवान् राम को अपना आत्मस्वरूप देखकर उनके कल्याणकारी शौर्यप्रमंडित जीवन को सामने रखकर एक रचना कर दी


तुलसी से यह किसने कराया यह संसार कौन चला रहा है इस कौन की समझ ही हो जाए तो आनन्द ही आनन्द है


सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥2॥


(अयोध्या कांड)



आइये अब अरण्य कांड में प्रवेश करते हैं


तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पंकज दिए।

मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥

जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।

रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥


मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥

आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥


अत्रि मुनि के चरणों में सिर नवाकर देवताओं , मनुष्यों और मुनियों के स्वामी श्री रामजी आगे चले उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मणजी हैं। दोनों ही मुनियों का सुंदर वेष बनाए अत्यन्त सुशोभित दिख रहे हैं


.राम दिलीप दशरथ जनक जैसे ही रहते यदि वो वन वन न जाते

वो भगवान् इसी कारण कहलाये जब उन्होंने वन वन राख छानी भारतवर्ष की उपासना की

उपासना बहुत कठोर होती है


उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥

सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥


सीता यहां श्री हो गई हैं क्योंकि अनुसूया के दिये दिव्यवस्त्र धारण करे हुए हैं


जहँ जहँ जाहिं देव रघुराया। करहिं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥

मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुबीर निपाता॥3॥


पुरुषार्थी के लिये प्रकृति सदैव अनुकूल रहती है

सकारात्मक सोच वाले कभी अभाव की बात नहीं करते



राम ने विराध राक्षस को अपने रास्ते से ऐसे हटा दिया जैसे दूध से मक्खी


आचार्य जी ने सरभंग आश्रम की चर्चा की

सरभंग आश्रम मध्य प्रदेश में स्थित एक धार्मिक स्थल है। यह चित्रकूट के बहुत करीब  है। सरभंगा आश्रम सतना जिले में  स्थित है



ऋषि सरभंग ने अपने अंतिम समय के दौरान श्री राम के दर्शन के लिए अपने प्राणों को अपने शरीर में रोक  रखा था और ऋषि सरभंग  ने श्री राम जी के दर्शन के बाद ही अपने प्राण त्यागे थे।



तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा॥

पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा॥4॥


कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला॥

जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥



जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥

एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा॥4॥


शरीर के प्रति लगाव तो होना चाहिये आसक्ति नहीं



जर्जर शरीर को भाव से त्याग देना चाहिये


संन्यास बौद्धिक विकास और आत्मिक शान्ति के लिये होता है



सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।

मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरूप श्री राम॥8॥



अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा॥

ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥