27.9.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 27 सितम्बर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है सुवेल आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 27 सितम्बर 2022

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

सार -संक्षेप 2/60


सुवेल =विनम्र



सुविज्ञ होने के बाद भी अत्यन्त सुवेल आचार्य जी के विशुद्ध पावन भाव हमें मार्गदर्शन दे रहे हैं यह हम लोगों का सौभाग्य है


अपनी सांसारिक यात्रा में हम लोग दृश्यों का आनन्द लेते हुए  सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति पाने के उपाय खोजते हुए  अपने पर परमात्मा पर विश्वास करते हुए सन्त्रास को पराजित करते हुए अपने सनातन धर्म पर पूर्ण विश्वास करते हुए शौर्य प्रमण्डित अध्यात्म को स्वीकारते हुए  सहयोग सामञ्जस्य स्वारस्य का अनुभव करते हुए इस धरा को निशाचरहीन करने का संकल्प लेते हुए आगे चलते रहें इसी का प्रयास आचार्य जी प्रतिदिन करते हैं


आचार्य जी अयोध्या कांड में लक्ष्मण गीता का उल्लेख कर रहे हैं


निषाद के प्रश्न और लक्ष्मण के उत्तर


कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह।

जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥91॥

जब निषाद इष्टदेव को कष्ट में देख रहे हैं



भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥

भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥1॥

ऐसा भाव है राम के प्रति



तब

बोले लखन मधुर मृदु बानी।




काहु न कोउ सुख दु:ख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥2॥

जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥

जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥3॥


दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥

देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥4॥



विवेक उत्पन्न हो और मोह भाग जाये यह है लक्ष्मण गीता



आइये अब राम गीता में प्रवेश करते हैं जहां लक्ष्मण के प्रश्न



(एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥)




सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥

मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥

कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥


ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।

जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥14॥


(ज्ञानी जब जिज्ञासु हो जाता है तो अत्यन्त अद्भुत स्थिति होती है)

 के उत्तर में राम जी कहते हैं 


थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥

मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥


जो नहीं है वह ही माया है 


गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥


विद्या और अविद्या में अन्तर है आत्मज्ञान सहज प्राप्त नहीं होता है 


एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा॥

एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥3॥


ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥

कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥

सारा संसार त्रिगुणात्मक है


माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।

बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥15॥


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने देवेन्द्र सिकरवार द्वारा लिखित अनसंग हीरोज इन्दु से सिन्धु तक पुस्तक की चर्चा की, 100 ग्राम के लिये क्या कटाजुज्झ हुआ जानने के लिये सुनें