अवगुन सिंधु मंदमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा॥4॥
प्रस्तुत है यष्टिप्राण -रक्षक आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 11 अक्टूबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
सार -संक्षेप 2/74
यष्टिप्राण =निर्बल
यह दुनिया एक रंगमंच है परमात्मा इसका निर्माता निर्देशक लेखक है हम उस ईश्वरीय व्यवस्था के एक पात्र हैं वही हमें पुरस्कार भी देता है और दंडित भी करता है
हमें अपनी भूमिका को सही ढंग से निभाना चाहिये
हम लोग प्रायः नारदीय भूमिका में रहते हैं नारद एक विचित्र पात्र हैं नारद भक्त जिज्ञासु ज्ञानी लोभी कामी ईर्ष्यालु हैं नारद में गुण बहुत हैं लेकिन अवगुण भी कम नहीं
वातावरण बहुत भ्रामक स्थिति में है इसलिये सदाचार के मूल में हमें रहने की आवश्यकता है जो हमें सदाचार की ओर प्रेरित करता है हमें अपने खानपान का विशेष ध्यान रखना चाहिये राष्ट्र के प्रति निष्ठावान होना चाहिये
इन सदाचार वेलाओं के प्रति हमारा आकर्षण इस बात का तो द्योतक है ही कि परमात्मा से कोई न कोई तो संबन्ध हमारा है इसे झुठलाया नहीं जा सकता जब हमारे सामने समस्याएं आती हैं तो स्वभाव के अनुसार हम उनसे जूझने की कोशिश करते हैं और जब उपाय नहीं मिलता तो परमात्मा याद आता है
ज्ञान के पटल खोलते समय हमें दम्भ न रहे लेकिन भक्ति विश्वास बना रहे इसका प्रयास हमें अवश्य करना चाहिये
हमें इस बात पर चिन्तन मनन करना चाहिये कि स्त्री, धन, पुत्र, व्यापार आदि के प्रति लगाव मेरे कारण है या उस व्यक्ति वस्तु के कारण है
वृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य और उनकी एक पत्नी मैत्रेयी का अत्यधिक रोचक संवाद का उल्लेख है। मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से यह ज्ञान ग्रहण किया कि हमें किसी भी तरह का संबंध प्रिय इस कारण होता है क्योंकि उससे कहीं न कहीं हमारा स्वार्थ संयुत होता है। आत्मज्ञान के लिए ध्यान,समर्पण और एकाग्रता आवश्यक है। याज्ञवल्क्य ने समझाया कि जिस तरह नगाड़े की ध्वनि के सामने हमें कोई दूसरी ध्वनि सुनाई नहीं देती उसी तरह आत्मज्ञान के लिए सभी इच्छाओं का त्याग आवश्यक है।
अरण्यकांड में
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दु:ख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि॥44॥
सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥
षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
का उल्लेख करते हुए आचार्य जी ने बताया षड्विकार हमारे अन्दर अवस्थित हैं उसी के बाद हमारी रचना हुई है
ज्ञान प्राप्ति के बाद भक्ति बनी रहनी चाहिये इसका प्रयास करें क्योंकि भक्ति ही शक्ति है