मैंमंता मन मारि रे, नान्हाँ करि करि पीसि।
तब सुख पावै सुंदरी, ब्रह्म झलकै सीसि॥
प्रस्तुत है कितवारि आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 12 अक्टूबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
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सार -संक्षेप 2/75
कितवः =धूर्त
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥
षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
अरण्यकांड की इन चौपाइयों का उल्लेख करते हुए आचार्य जी कहते हैं
संत वह नहीं है जो जपमाला करने में व्यस्त है और त्राहि त्राहि कर रहे लोगों की आवाज उसे सुनाई न दे
अपितु
संत हृदय नवनीत समाना। कहा कबिन्ह परि कहै न जाना॥
निज परिताप द्रवइ नवनीता। पर दुख द्रवहिं संत सुपुनीता॥4॥
संत हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है, मक्खन ताप को प्राप्त करने से पिघलता है और अत्यन्त पवित्र संत दूसरों के दुःख से पिघल जाते हैं
संत असंत में अन्तर है
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।।
रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी।।
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥
राम सही अर्थों में संत है जिन्होंने अनेक दुष्टों का संहार करके संतों की रक्षा की जन्म से लेकर अवसान तक कभी हार नहीं मानी किसी के साथ अन्याय नहीं किया राम ने अपने अन्दर के भाव को नहीं त्यागा सब लोगों ने भगवान् राम पर विश्वास किया
संत वह है जो सतर्क बुद्धि के साथ समय पर उचित निर्णय लेने की क्षमता रखता हो आवश्यकता होने पर संत खड्ग उठा सकता है
भोग का लोभ और मुक्ति का लोभ दोनों ही हानिकारक हैं
विवेकानन्द की तरह नौजवानों को भावी पीढ़ी को जाग्रत करना सही गलत में अन्तर बताना सनातन धर्म, राष्ट्र के प्रति आस्थावान बनाना उनके पराक्रम शौर्य को जाग्रत करना हम अपना उद्देश्य बनायें इसे PERSONALITY DEVELOPMENT कह सकते हैं
चारित्र्यसंपन्न हिन्दुओं का संगठन खड़ा करने का विचार हेडगेवार के मन में आया था
जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि वे लोग धन्य हैं, जो केवल श्री हरि के रंग में रंग गये हैं