राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥
प्रस्तुत है ज्ञान -शैवलिनी आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 20 अक्टूबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
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448वां सार -संक्षेप
शैवलिनी =नदी
मनुष्य का मनुष्यत्व ईश्वर का अंश है
सुस्पष्ट दिशा और दृष्टि रखने वाले आचार्य जी द्वारा राम कथा कहने का उद्देश्य यह है कि हमारे अन्दर भक्ति शक्ति आत्मविश्वास संसार में निवास करने की योग्यता रामात्मक अनुभूति आ जाये
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन-कुमार। बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार।
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥
(सर =शर अर्थात् बाण, चाप =धनुष )
अपने अंदर के कलुषों को दूर करके भाव में समर्पित होकर भारतवर्ष की अस्मिता के रक्षक तुलसीदास की राम कथा में आइये प्रवेश करते हैं
प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। सो सुख उमा जाइ नहिं बरना॥
पुलकित तन मुख आव न बचना। देखत रुचिर बेष कै रचना॥3॥
प्रभु को पहचानकर हनुमान जी उनके पैर पकड़कर गिर पड़े यह सुख वर्णन नहीं किया जा सकता। शरीर पुलकित है, मुख से वचन नहीं निकल रहे । हनुमान जी सुंदर वेष की रचना देख रहे हैं
पुनि धीरजु धरि अस्तुति कीन्ही। हरष हृदयँ निज नाथहि चीन्ही॥
मोर न्याउ मैं पूछा साईं। तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥4॥
हनुमान जी भावमय हो गये
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥1॥
ता पर मैं रघुबीर दोहाई। जानउँ नहिं कछु भजन उपाई॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें। रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥2॥
सेवक उसके भरोसे रहता है जिसकी सेवा करता है सुत मां के भरोसे रहता है
अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई॥
तब रघुपति उठाई उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा॥3॥
सहज रूप में आने पर भाव आते हैं बनावट में भाव नहीं आते हैं बनावट दूर हो तभी वास्तविकता प्रकट होती है तभी हम भावयुक्त हो जाते हैं
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना। तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ। सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ॥4॥
आचार्य जी ने एक प्रसंग बताकर बहुत अच्छी बात कही कि बराबरी इस संसार का स्वभाव नहीं है स्वधर्म नहीं है इसमें तो बहुत से उतार चढ़ाव हैं पर्वत है तो खाई भी है सुख है तो दुःख भी है कोई आ रहा है तो कोई जा रहा है आदि आदि
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥3॥