22.10.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 22 अक्टूबर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है सश्रीक आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 22 अक्टूबर 2022

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

  450 वां सार -संक्षेप

सश्रीक =समृद्धिशाली



जिस तरह अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण प्रारम्भ से लेकर अंत तक साथ रहे उसी तरह भगवान राम और हनुमान जी साथ रहे लक्ष्मण भरत शत्रुघ्न भगवान राम के साथ अन्त में नहीं थे लेकिन श्री राम को विदा करते समय भी हनुमान साथ थे 

भगवान् राम ने हनुमान जी से कहा तुम इस भारतभूमि पर रहो तुमको इसकी रक्षा करनी है इसके भक्त जब भाव में आयेंगे तुम्हारी भक्ति करेंगे तो उनमें शक्ति उत्पन्न होगी और यह बुझती ज्योति फिर से जलेगी



मानस में व्यवहार और सिद्धान्त दोनों हैं भगवान् राम अवतरित होकर आये तो उनकी सहायता के लिये शक्तिशाली वानरवंश भालूवंश आदि देवता रूप में अवतरित होकर आये

भारतवर्ष परमात्मा राम की लीलाभूमि है

भगवान् राम ने  संपूर्ण विश्व की राजधानी   भारतवर्ष में फैली इन्हीं असंगठित शक्तियों को संगठित करने का काम किया यही बात आचार्य जी भी कहते हैं कि हम लोग भी अपनी युगभारती, जिसके सदस्यों को पढ़ते समय हनुमान जी  द्वारा बल भक्ति विश्वास मिला, की विचारधारा वाले राष्ट्रभक्त संगठनों से संपर्क कर एक जुट हों क्योंकि परिस्थितियां इस समय बहुत विषम हैं

भोगाश्रित कामाश्रित संसाराश्रित न होकर वैश्विक मानसिकता वाले हम हिन्दुओं को रामाश्रित होने की आवश्यकता है


स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः केशा नखा नराः ।

इति संचिन्त्य मतिमान्न स्वस्थानं न परित्यजेत् ll


नर के लिये स्थानभ्रष्ट होना अच्छा नहीं रामाश्रित होने के लिये द्वारपाल हनुमान जी की आज्ञा लेकर अन्दर प्रवेश करना  होगा

राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥


रामचरित मानस अद्भुत ग्रंथ है और इसके रचयिता

कथावाचक तुलसीदास का जीवन जन्म से ही बहुत कष्टों में बीता भक्तमाल के अनुसार मां पार्वती उन्हें दूध पिलाती थी

नैष्ठिक ब्रह्मचारी नरहरिदास ने उन्हें शेष सनातन की पाठशाला में प्रवेश कराया

आचार्य जी ने यह भी बताया कि उन्होंने *रामाज्ञा प्रश्न* कैसे लिखा जिसमें सात सर्ग हैं प्रत्येक सर्ग में सात सप्तक हैं प्रत्येक सप्तक में सात दोहे हैं 


किष्किन्धा कांड में हनुमान जी कहते हैं


एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।

पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥2॥


जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें। सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥

नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा॥1॥



अस कहि परेउ चरन अकुलाई। निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई॥




तब रघुपति उठाई उर लावा। निज लोचन जल सींचि जुड़ावा॥3॥


सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।

मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥3॥


देखि पवनसुत पति अनुकूला। हृदयँ हरष बीती सब सूला॥

नाथ सैल पर कपिपति रहई। सो सुग्रीव दास तव अहई॥1॥


तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे॥

सो सीता कर खोज कराइहि। जहँ तहँ मरकट कोटि पठाइहि॥2॥


एहि बिधि सकल कथा समुझाई। लिए दुऔ जन पीठि चढ़ाई॥

जब सुग्रीवँ राम कहुँ देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा॥3॥


आचार्य जी ने कौन सा बोझ उतारने के लिये कहा

जानने के लिये सुनें