अहिल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा । पञ्चकं ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम् ।।
प्रस्तुत है अभिगोप्तृ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 27 अक्टूबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
455 वां सार -संक्षेप
अभिगोप्तृ =संरक्षक
भाषा इस सृष्टि की निर्मिति का आदिस्रोत है आत्मज्ञान होने पर भाषा अद्भुत लगती है भाषा के बहुत से विरुद हैं जैसे गिरा, सरस्वती, भारती, महाश्वेता, ज्ञानदा, शारदा आदि
भाषा स्वर शब्द के बिना इस तरह के संसार की कल्पना ही नहीं जा सकती
ॐ का स्वर बहुत प्रभावी है जो शारीरिक रोगमुक्ति,मानसिक भावभक्ति के साथ तत्त्वज्ञता का भी कारण है
इस सदाचार वेला के माध्यम से आचार्य जी हमें प्रेरित करते हैं कि हम अपना लक्ष्य राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष न भूलें
जहां आवश्यकता हो वहां शक्ति का प्रयोग भी करें
आत्मानुभूति का विलोप होने पर हम संकटों में व्यथित होने लगते हैं
हम अपनी शक्ति अपने तत्त्व को पहचानें इसी की पहचान कराती ये कविता प्रस्तुत है
भा में रत भारत महान ज्ञान रत्न रहा
शक्ति शौर्य संयम की यह परिभाषा था
विश्व में जहां कहीं भी गया जिस रूप में भी
वहीं वह हुआ जीवमात्र की सुआशा था
किन्तु जब आत्मज्ञान केवल मनन हुआ
हुआ उसी दिन से ये भारत तमाशा था
इसलिये भारत हे फिर से वरण करो
शील युक्त शौर्य शक्ति विक्रम की भाषा का
इस धरोहर को हम संभालें
इसी भाव को लेकर समाज को जाग्रत करने के लिये तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की
आइये प्रवेश करते हैं किष्किंधा कांड में
परा बिकल महि सर के लागें। पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगे॥
स्याम गात सिर जटा बनाएँ। अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥1॥
बालि के बारे में बहुत सी अन्तर्कथाएं हैं जिनमें हमें सतही तौर पर प्रवेश नहीं करना चाहिये अन्यथा हमें इनसे विरक्ति होने लगती है
हमारी बौद्धिकता को विकृत करने के बहुत से प्रयास हुए और हम शक्तिहीन हो गए
और इसी कारण हमें अपने पर ही विश्वास नहीं रहा
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं॥
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥3॥
अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥4॥
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना। नारि सिखावन करसि न काना॥
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी। मारा चहसि अधम अभिमानी॥5॥
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥9॥
सुनत राम अति कोमल बानी। बालि सीस परसेउ निज पानी॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना। बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥1॥
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं। अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी। देत सबहि सम गति अबिनासी॥2॥
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥2॥