28.10.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 28 अक्टूबर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 उमा राम सम हत जग माहीं। गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥

सुर नर मुनि सब कै यह रीती। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति॥1॥



प्रस्तुत है प्रतिपत्तिविशारद आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 28 अक्टूबर 2022 

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

  456 वां सार -संक्षेप

प्रतिपत्तिविशारद =कुशल



ये सदाचार संप्रेषण हम लोगों के लिये अत्यन्त लाभकारी हैं

हम ऐश्वर्य अर्थात् ईश्वरीय शक्ति,जो हमारे शरीर को चलाती है,की उपासना करें

शरीर को साधन मानें लेकिन साध्य नहीं

यह नष्ट योग्य है हमें तो यह दूसरा मिलेगा इसीलिये  मरने पर हम इसे मिट्टी कहते हैं

 आचार्य जी की प्राणिक शक्ति समाजोन्मुखी है भारतीय जीवनशैली में शास्त्रों में आचार्य जी का गहन  प्रवेश है हमें भी परम स्वार्थ की आंधी की ओर पीठ करके इस गलियारे में प्रवेश कर इसका लाभ लेना चाहिये


लेखन, युद्ध, समाज सुधार, सेवा के क्षेत्र में एक से एक महापुरुष इस धन्यभूमि पर जन्मे हैं ऐसे ही एक महापुरुष तुलसीदास हैं


सनातन पद्धति का आधार लेकर ही हम लोगों पर अमिट छाप छोड़ने वाले तुलसीदास जी ने जो रामचरित मानस रची वो तो अद्भुत है


आइये प्रवेश करते हैं इसी ग्रंथ के किष्किन्धा कांड में



अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।

जेहि जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥

यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिये।

गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये॥2॥



अंगद का अर्थ है भुजा पर पहनने वाला आभूषण

बालि ने अंगद नाम इस कारण रखा कि  उसका यह पुत्र उसकी भुजा का सौंदर्य है भुजा अर्थात् बल का प्रतीक 



राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।

सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥10॥


राम बालि निज धाम पठावा। नगर लोग सब व्याकुल धावा॥

नाना बिधि बिलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा॥1॥



तारा बिकल देखि रघुराया। दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा॥2॥


प्रगट सो तनु तव आगे सोवा। जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥

उपजा ग्यान चरन तब लागी। लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥3॥


उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाईं॥

तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा। मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा॥4॥


लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।

राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज॥11॥


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने एक कविता सुनाई


हम ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र की भाषा छोड़  उठें.