29.10.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 29 अक्टूबर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है अपिगीर्ण आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 29 अक्टूबर 2022 

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

  457 वां सार -संक्षेप

अपिगीर्ण =यशस्वी



अपनी भारतीय संस्कृति का नित्य संस्मरण सदाचारमय विचारों के साथ होना हम लोगों के लिये सौभाग्य की बात है और इस सदाचार वेला के माध्यम से हम लोग अपने भावों विचारों अध्ययन स्वाध्याय को विस्तार देने में सक्षम हो पा रहे हैं


यश कमाना और धन कमाना अलग अलग है

कल अपने गांव सरौंहां में होने वाला चिकित्सा शिविर बिना स्वार्थ के सेवाभाव से किया जा रहा है


लोग ठगे जाते हैं ऐसे में उनमें विश्वास पैदा करना उनकी सेवा करना एक बड़ी  चुनौती है


सारे संशयों को दूर करने वाली धर्म दर्शन ज्ञान विज्ञान रीति नीति युक्त इस रामचरित मानस में भगवान् राम मानव रूप में सारा यश अपयश ढोते हुए सारी समस्याएं अपने ऊपर लेते हुए असली संन्यासी के रूप में संपूर्ण संसार को त्रस्त करने वाले दुष्ट रावण से संसार को मुक्ति दिलाते हैं

भोग में अनुरक्त भक्त त्याज्य है


कबहु दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।

बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥

तो आइये सुसंगति पाकर ज्ञान प्राप्त करें

किष्किन्धा कांड में


लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।

राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज॥11॥


पत्नी को भोग्या समझना गलत है वह मार्गदर्शक भी होती है

संघर्ष करके पुरुष को जगाने वाली पंच कन्याएं अहिल्या, द्रौपदी, तारा, सीता (कहीं कहीं कुन्ती ), मन्दोदरी स्मरण करने योग्य हैं


सुग्रीव और बालि को मार्गदर्शन देने वाली अङ्गद की मां तारा ने संपूर्ण दक्षिण क्षेत्र को सुरक्षित किया


कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा। पुर न जाउँ दस चारि बरीसा॥

गत ग्रीषम बरषा रितु आई। रहिहउँ निकट सैल पर छाई॥4॥


अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदयँ धरेहु मम काजू॥

जब सुग्रीव भवन फिरि आए। रामु प्रबरषन गिरि पर छाए॥5॥


प्रथमहिं देवन्ह गिरि गुहा राखेउ रुचिर बनाइ।

राम कृपानिधि कछु दिन बास करहिंगे आइ॥12॥



प्रवर्षणगिरि (प्रस्रवणगिरि )का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में  है, जो होस्पेटतालुका मैसूर में है।  प्राचीन किष्किंधा के निकट माल्यवान पर्वत  है, जिसके एक भाग का नाम 'प्रवर्षणगिरि' है। यह किष्किंधा के विरूपाक्ष मन्दिर से चार मील की दूरी पर है।


अभिषिक्ते तु सुग्रीवे प्रविष्टे वानरे गुहाम, आजगाम सह भ्रात्रा राम: प्रस्रवणं गिरिम्'-



ततो रामो जगामाशु लक्ष्मेण समन्वित:, प्रवर्षणगिरेरुर्घ्व शिखरं भूरिविस्तरम्। तत्रैकं गह्वरं दृष्टवा स्फटिकं दीप्तिमच्छुभम्, वर्षवातातपसहं फलमूलसमीपगम्, वासाय रोचयामास तत्र राम: सलक्ष्मण:। दिव्यमूलफलपुष्पसंयुते मौक्तिकोपमजलौध पल्वले, चित्रवर्णमृगपक्षिशोभिते पर्वते रघुकुलोत्तमोऽवसत्'- किष्किंधा[



बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।

बूँद अघात सहहिं गिरि कैसे। खल के बचन संत सह जैसें॥2॥


प्रकृति का आकर्षण भी मनुष्य को शान्ति देता है



छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई॥

भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी॥3॥


परमपवित्र जीव यहां आकर माया से लिपट जाता है



समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा॥

सरिता जल जलनिधि महुँ जोई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई॥4॥


हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।

जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ॥14॥