तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई।
प्रस्तुत है सकर्मक आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 31 अक्टूबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
459 वां सार -संक्षेप
सकर्मक =कर्मशील
शिव,शक्ति, संयम, साधना,समर्पित भक्ति के प्रतीक हमारे संरक्षक हनुमान जी की कीर्तिगाथा हमारा मार्गदर्शन करती है उनके संरक्षण में त्याग समर्पण संयम साधना तप सेवा विश्वास के भावों से ओत प्रोत कल सरौंहां में संपन्न हुआ स्वास्थ्य शिविर अत्यन्त सफल रहा युगभारती के लगभग तीस सदस्यों द्वारा बिना लोभ लाभ की आशा लिये समर्पित बहुमूल्य समय,धन, भाव, शक्ति परमात्मा की आराधना ही है
235 लाभार्थियों ने हम लोगों पर कृपा करते हुए एक बार फिर से हमें अपना लक्ष्य याद दिला दिया और हमारा लक्ष्य है
*राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष*
आइये राम कथा में प्रवेश करते हैं
मैं देखउँ तुम्ह नाहि गीघहि दष्टि अपार।।
बूढ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तुम्हार।।28।।
जटायु के भाई संपाती जिनके पंख सूर्य के अश्व खाने के चक्कर में झुलस गए थे को आशा की किरण दिखाई दी कि राम जी की कृपा से उनके पंख फिर से आ जायेंगे
जो नाघइ सत जोजन सागर । करइ सो राम काज मति आगर ।।
मोहि बिलोकि धरहु मन धीरा । राम कृपाँ कस भयउ सरीरा।।
पापिउ जा कर नाम सुमिरहीं। अति अपार भवसागर तरहीं।।
भगवान् राम ने कठिन परीक्षा ली अब जाकर राम मंदिर बन रहा है श्रद्धेय अशोक सिंघल जी जैसे बहुत से उदाहरण हैं जिनके शरीर यह साधना करते करते छूट गये
तासु दूत तुम्ह तजि कदराई। राम हृदयँ धरि करहु उपाई।।
अस कहि गरुड़ गीध जब गयऊ। तिन्ह कें मन अति बिसमय भयऊ।।
निज निज बल सब काहूँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा।।
जरठ भयउँ अब कहइ रिछेसा। नहिं तन रहा प्रथम बल लेसा।।
जबहिं त्रिबिक्रम भए खरारी। तब मैं तरुन रहेउँ बल भारी।।
बलि बाँधत प्रभु बाढेउ सो तनु बरनि न जाई।
उभय धरी महँ दीन्ही सात प्रदच्छिन धाइ।।29।।
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा। जियँ संसय कछु फिरती बारा।।
जामवंत कह तुम्ह सब लायक। पठइअ किमि सब ही कर नायक।।
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना।।
पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।
कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।।
राम काज लगि तब अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।।
कनक बरन तन तेज बिराजा। मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा।।
सिंहनाद करि बारहिं बारा। लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा।।
सहित सहाय रावनहि मारी। आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।
जामवंत मैं पूँछउँ तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।।
एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।
तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि संग कपि सेना।।
छंद
कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं।।
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई।।
दोहा/सोरठा
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि।।30(क)।।
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक।।30(ख)।।
सुन्दर कांड का संकेत देते हुए आचार्य जी ने आज किष्किन्धा कांड का समापन किया