प्रस्तुत है उत्प्रभ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 6 अक्टूबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
सार -संक्षेप 2/69
उत्प्रभ =प्रकाश बिखेरने वाला
संसार के रचनाकार का रहस्यात्मक जीवन अद्भुत है
हम लोगों पर भगवान की कृपा ही है कि इन सदाचार वेलाओं से हमें दिशा और दृष्टि प्राप्त हो रही है सांसारिक प्रपञ्चों में उलझने के बाद भी हम ऊंचे से ऊंचे आदर्श की कल्पना करें बड़े से बड़े लक्ष्य बनायें खराब से खराब परिस्थितियों में संघर्ष करने की विस्तृत योजना बनायें
हम राष्ट्र के लिये त्यागमय जीवन व्यतीत करें
हमें आचार्य जी के संकेतों को समझकर उन्हें विस्तार देना है
राम और कृष्ण हमारे आदर्श हैं मार्गदर्शक हैं
एक कहते हैं
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥ 31॥
समस्या के मूल को नष्ट करना हमारा उद्देश्य होना चाहिये यही रामत्व है
और दूसरे कहते हैं
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।4.8।।
जो लोग राम और कृष्ण के चरित्र को इस संसार के स्वरूप में देखते हैं वो भ्रमित होते हैं माया का सम्मोहन ही उन्हें भ्रमित करता है
कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।।
जो मनुज कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म , वह बुद्धिमान् है, योगी है और सारे कर्मों को करने वाला है।
जिस कालखंड में मनुष्य को अपना मनुष्यत्व समझ में आता है उस समय वह अपने शरीर को भूल जाता है जैसे भारत मां का सैनिक
आइये अरण्यकांड में प्रवेश करते हैं
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥4॥
गुणों की खान जानकी! हे रूप, शील, व्रत, नियमों में पवित्र सीते! श्री लक्ष्मण ने बहुत प्रकार से समझाया। तब श्री राम लताओं और वृक्षों से पूछते हुए चले
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥5॥
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥8॥
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥9॥
कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रघुबीर।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर॥30॥
कृपा के समुद्र श्री राम ने अपने हाथ से उसके सिर का स्पर्श किया श्री रामजी का मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही
तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥3॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥5॥
इसके अतिरिक्त करपात्री जी महाराज का कौन सा प्रसंग आचार्य जी ने बताया जानने के लिये सुनें