चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।4.14।।
कर्म मुझे लिप्त नहीं करते हैं और न मुझे कर्मफल में स्पृहा है। इस तरह मुझे जो जानता है, वह कर्मों से नहीं बंधता है
प्रस्तुत है अव्यभिचारिन् आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 8 अक्टूबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
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सार -संक्षेप 2/71
अव्यभिचारिन् =सदाचारी
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति मनुष्य के विरुद्ध चल रही है तभी तो इन दिनों असमय वर्षा हो रही है
वर्षा जो मङ्गलकारिणी होती है इस समय विपत्तिकारिणी बनी हुई है
इसी तरह वैचारिक क्षेत्र में भी विपत्ति वाले विचार फैले हुए हैं उनसे हमें सचेत रहते हुए दूरी बनानी है और मङ्गल करने वाले विचारों को अपनाना है
यह नाम रूपात्मक जगत है एकात्मकता इसका स्वभाव है और भिन्नात्मकता इसका स्वरूप है यहां रूप के नाम हैं और भाव के नाम रूप से संयुत होने पर हैं और भाव यदि तत्त्वरूप में है तो भाव का कोई नाम नहीं रूप के अनेक नाम हैं
दर्शन के इन विषयों को भी हमें समझना चाहिये और मार्गदर्शक बनकर भावी पीढ़ी को भी समझाना चाहिये
आइये फिर एक बार अरण्य कांड में आगे चलते हैं
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
मन, वचन,कर्म से कपट छोड़कर जो ब्रह्म की जिज्ञासा रखने वाले भूमि के देवता ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ सहित ब्रह्मा, शिव आदि उसके वश में हो जाते हैं
सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥1॥
गुरु हमारा हित ही करता है
संत ऐसा भी होता है जो संसार की बहुत सी वस्तुओं को नहीं जानता गुण शील आदि संसार से संयुत तत्त्व हैं
ज्ञानी संसारी से अज्ञानी असंसारी श्रेष्ठ है
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
रामजी ने अपना भागवत धर्म उसे समझाया। अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को भाया। श्री राम जी के चरणकमलों में सिर नवाकर वह आकाश में चला गया
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥
श्री रामजी उसे गति देकर शूद्र वर्ण की शबरीजी के मतंग आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचंद्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतंगजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया॥3॥
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे॥5॥
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥34॥
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
भक्ति का आधार प्रेम है
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥
जातपात , कुल, धर्म, धन, बल, परिवार , गुण, चातुर्य इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य वैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल शोभारहित लगता है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने मनोज मुन्तशिर का नाम क्यों लिया आदि जानने के लिये सुनें