न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम् ।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ॥
हे प्रभु! न मुझे राज्य की कामना है,न स्वर्ग की और न ही मुक्ति की
मेरी एकमात्र इच्छा यही है कि दुःखी प्राणियों का कष्ट समाप्त हो जाए
प्रस्तुत है आर्तसाधु आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 9 अक्टूबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
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https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
सार -संक्षेप 2/72
आर्तसाधुः =दुःखी व्यक्तियों का मित्र
आज आचार्य जी कानपुर आ रहे हैं क्योंकि आज विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म कालेज कानपुर के शताब्दी समारोह की शृङ्खला में *देवपुरुष बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह* पुस्तक का विमोचन, पूर्व गुरुवन्दन एवं पूर्व छात्र अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया है जिसका समय सायं 5:30 बजे से है
इसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के परमपूज्य सरसंघचालक मा डा मोहन राव भागवत जी, छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो विनय पाठक जी, श्री ब्रह्मावर्त सनातन धर्म महामण्डल के अध्यक्ष मा श्री वीरेन्द्रजीत सिंह आदि उपस्थित रहेंगे
आइये अरण्यकांड में शबरी प्रसंग के सबसे प्रमुख भाग नवधा भक्ति जो अध्यात्म रामायण में दसवें सर्ग में है में प्रवेश करते हैं
विवादों में संवाद नहीं होते उसमें तर्क होते हैं जहां तर्क होते हैं भक्ति का भाव विलुप्त रहता है भक्ति हृदय आधारित है और तर्क बुद्धि आधारित है
हृदय और बुद्धि के सहयोग से आत्मबोध की प्राप्ति होती है
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥34॥
यहां तुलसीदास ने मूलभाव रखा है बहुत विस्तार नहीं दिया है
पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥1॥
भगवान् राम के दर्शन का आश्वासन मतंग ऋषि ने शबरी को दिया था
अब राम सामने हैं तो शबरी कह रही हैं मेरा कल्याण करो
मुझे भक्ति के बारे में जानकारी दें
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥
गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥
एक गुण आ जाये तो बहुत से गुण आ जाते हैं
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
इसके बाद भगवान राम मनुज स्वरूप में आ जाते हैं
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥
पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥