11.11.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 11 नवम्बर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है वन्द्र आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 11 नवम्बर 2022 

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

  470 वां सार -संक्षेप

वन्द्र =पूजा करने वाला



यज्ञ भारतीय संस्कृति का आराध्य इष्ट है

 यज्ञ के बिना  दैनिक जीवन की कल्पना भी असंभव है । यज्ञ की महिमा का वेदों, उपनिषदों, गीता , रामचरित मानस आदि में  विस्तार से वर्णन है


हमें यज्ञ के महत्व को समझकर अपने जीवन जीने की विधि में उसका समावेश करना चाहिये अन्यथा हम कितने भी साधन अर्जित कर लें , हमें सुख और संतोष नहीं मिल सकता

भोग भाव दयनीय स्थिति को दर्शाता है 


मियागंज उन्नाव में कल से राजसूय यज्ञ का शुभारंभ हो गया जिसमें  प्रातः  शुभ मंगल कलश यात्रा हुई कल सुंदरकांड के मर्मज्ञ अत्यन्त मृदु स्वभाव वाले सात्विक पंडित श्री अजय याज्ञिक जी ( जन्म :दारागंज प्रयागराज, प्रायः दिल्ली में रहते हैं )ने सुंदरकांड का  पाठ प्रारंभ किया 


(याज्ञिक गुजराती ब्राह्मणों की एक उपजाति है याज्ञिक का अर्थ है यज्ञ करने और करवाने वाला )


आचार्य जी ने परामर्श दिया कि युगभारती उन दो बच्चों की पढ़ाई लिखाई का खर्चा उठाए जिनकी चर्चा आज के संबोधन में हुई है


आइये सुन्दरकांड,जो हमें शक्ति भक्ति संयम बुद्धि सेवा संस्कार आदि प्रदान करता है, में प्रवेश करते हैं जिसे भक्ति भाव विचार भावना से ओतप्रोत आचार्य जी हमें सुना रहे हैं 


चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥

नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥


मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥

चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा॥3॥


नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।

लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥30॥


हनुमान जी ने कहा  आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है, आपका ध्यान ही किवाड़ है। आंखों को अपने चरणों में लगाए रहती हैं, यही ताला लगा है, फिर प्राण जाएँ तो किस रास्ते से?



चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥

नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥


अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना॥

मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥


अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥

नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।

बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥31॥