उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।1॥
प्रस्तुत है वयोकर आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 13 नवम्बर 2022
का सदाचार संप्रेषण
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https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
472 वां सार -संक्षेप
वयोकर =जीवन को पुष्ट करने वाला
जब कार्य का क्रम अपने स्वभाव में सहज हो जाता है तो हम कर काम व्यवस्थित रूप से करके आनन्दित होते हैं व्यक्ति जितना सुयोग्य होता है उतना ही क्रम और व्यवस्था का ध्यान रखता है यही अनुशासन है यह मनुष्य जीवन का विशिष्ट वरदान है और यह अनुशासन उसे सफल बनाने का उपाय भी है
कल राजसूय यज्ञ में भैया विनय अजमानी भैया शशि शर्मा भैया सुरेश गुप्त भैया सुनील जैन भैया अरविन्द भैया वीरेन्द्र त्रिपाठी भैया मनोज अवस्थी भैया अक्षय
भैया महेश चौहान भैया कृष्ण तिवारी भैया निर्भय सिंह उपस्थित रहे
प्रेम भूषण जी भजन पर जोर दे रहे थे भजन सात्विकता का अभ्यास है सात्विकता है :सूझबूझ के साथ संसार का सामञ्जस्य देखते हुए इस संसार में रहने की तमीज, अच्छा व्यवहार और आचरण
संघर्ष के समय पीठ दिखाना कायरता है सात्विकता नहीं
अब बिलंबु केह कारन कीजे।
आइये प्रवेश करते हैं सुन्दर कांड में जिस कांड में गोस्वामी राष्ट्रभक्त तुलसीदास की उस साधना की प्रस्तुति है जिसके कारण ही कालनेमि के रूप में बैठे अकबर के कारण निराश हुए भारतीय लोगों में आशा का संचार हुआ उन्हें अपनी शक्ति क्षमता की पहचान हुई संगठन का महत्त्व समझ में आया
नेतृत्व के कारण कभी कभी हम भ्रमित हो जाते हैं अन्यथा सहज रूप से हम वीर पराक्रमी त्यागी तपस्वी हैं
इसी कारण हम परतन्त्र नहीं हुए आज भी भारत वर्ष सजग है उसे उज्ज्वल भविष्य दिख रहा है
घर से निकला राजकुमार जिसने कष्टों को उपहार के रूप में सहर्ष स्वीकारा ऐसा राम
यही राम तो हमारे आदर्श बने
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥33॥
नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥
अब बिलंबु केह कारन कीजे। तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥34॥
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥5॥
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दु:ख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥1॥
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥