सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥
प्रस्तुत है ज्ञातृत्व-सलिलनिधि *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 24 नवम्बर 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
483वां सार -संक्षेप
* ज्ञान का समुद्र
भारत वर्ष अध्यात्म आधारित चिन्तन में मग्न रहता है
विकृत मानसिकता वाले लोगों के बहुत सारे असफल प्रयासों के बाद भी
( इतिहास का पुनर्लेखन आवश्यक है आचार्य जी परामर्श दे रहे हैं कि
भारतीय संस्कृति से संबन्धित विचारों को स्थान स्थान पर हम लोग रखें अच्छाइयों को खोजकर उसे प्रेषित करें)
भारतीय संस्कृति के रोम रोम में बसे हैं राम
सब प्रकार के संकटों को सहन कर उसे विष की तरह पचाकर राम और शिव के संबन्धों को भारतीय जीवन दर्शन में पिरोकर पौरुष पूर्वक समस्याओं का समाधान दिखलाने वाले
भारतीय संस्कृति के उन्नायक गोस्वामी सहित्यावतार तुलसीदास द्वारा मानस को रचने का उद्देश्य था भारतीय संस्कृति की सेवा इसी संस्कृति का विचार व्यवहार इसी विलक्षण संस्कृति पर आधारित अपने अन्दर स्थित पौरुष पराक्रम की अवधारणा को मात्र सुरक्षित संरक्षित न कर व्यवहृत करना
राष्ट्र के लिये जो जितना समर्पित रहा उसे उतना ही सम्मान मिला
आइये प्रवेश करते हैं सुन्दर कांड में
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥
सीता की खोज में लगे भगवान् राम स्वयं परेशान हैं लेकिन संकटों से घिरे विभीषण को समझा रहे हैं
यह रामत्व है भगवान् राम ने ही कहा था
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रुद्र सरनागत गएँ न उबरिहिं प्रान॥6॥
विभीषण जी भक्ति मांग रहे हैं
अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥4॥
राम जी उन्हें भक्ति देंगे लेकिन माला जपने वाली नहीं शक्ति वाली भक्ति देंगे जिससे अत्याचारी भाई रावण का अन्त हो अस्त व्यस्त लंका को वे संभाल सकें
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥3॥
इसके आगे आचार्य जी ने क्या बतलाया जानने के लिये सुनें