30.11.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 30 नवम्बर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 साधु-संग', 'साधु-संग' - सर्व-शास्त्रे

काय लव-मात्र साधु-संगे सर्व-सिद्धि हय

सभी  शास्त्रों का निर्णय  है कि एक शुद्ध भक्त के साथ एक क्षण की संगति से भी, हर तरह की सफलता प्राप्त की जा सकती है



प्रस्तुत है  जिगीषु *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 30 नवम्बर 2022 

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

  489 वां सार -संक्षेप

* जीतने का इच्छुक



ये सदाचार वेलाएं संस्कार प्रदान करने की एक व्यवस्था है

 कथा-श्रवण हमारे भारत वर्ष 

की एक अद्भुत संस्कार व्यवस्था है राम कथा के माध्यम से कथात्मक जीवन के साथ जो संस्कार संयुत किये गये हैं उस ओर आचार्य जी द्वारा ध्यान दिलाया जाता है रामकथा हमें संस्कारित करती है कथा के मर्म को समझें

हम शिक्षकत्व की अनुभूति करें

ताकि हम अपने आचरण और व्यवहार को परिशुद्ध करने के लिये सतत प्रयत्नशील रहें

रामाश्रित होकर हम बड़े से बड़े काम कर सकते हैं


तुलसीदास जी ने मानस में समाज को जाग्रत करने के सूत्र सिद्धान्त प्रस्तुत कर दिये हैं 

आइये प्रवेश करते हैं लंका कांड में


उस लंका में भी सज्जन निवास कर रहे हैं शिव जी से रावण को जो वरदान मिला है उसका वह दुरुपयोग कर रहा है

सेतु निर्माण हो चुका है



परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥

करिहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना॥


पश्चिमी सभ्यता के दुष्प्रभावों में फंसकर हम भाव और भक्ति से आप्लावित देशदर्शन तीर्थयात्रा भूल गये हम picnic करने लगे

आवश्यकता है युगभारती इस दिशा में भी सोचे तीर्थयात्राओं की व्यवस्था करे


जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥

जो गंगाजलु आनि चढ़ाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥

रामेश्वरम की योजना भी बन सकती है



 भगवान् राम



(श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।

ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥ 3॥)



 चाहते हैं कि इस रम्य स्थल पर शिव जी की स्थापना कर दी जाये क्योंकि


कृतादिशु प्रजा राजन् कलाविच्छन्ति सम्भवम् ।

कलौ खलु भविष्यन्ति नारायणपरायणाः।

क्व‍‍चित् क्व‍चिनमहाराज द्रविषु च भूरिष: ॥ 38॥

ताम्रपर्णी नदी यत्र कृतमाला पयस्विनी ।

कावेरी च महापुण्या प्रतीची च महानदी ॥ 39 ॥

ये पिबन्ति जलं तासां मनुजा मनुजेश्वर।

प्रायो भक्ता भगवति वासुदेवेऽमलाशया: ॥ 40॥



तुलसीदास जी ने शैवों और वैष्णवों के संघर्षों को शमित करने का प्रयास किया



सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥

संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥


सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥

खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए॥



प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुंदर फल-मूल खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े।


इसके अतिरिक्त आचार्य जी किस भैया के पुत्र के विवाह में सम्मिलित हुए थे जानने के लिये सुनें