नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
प्रस्तुत है मर्षिन् आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 4 नवम्बर 2022
का सदाचार संप्रेषण
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463 वां सार -संक्षेप
मर्षिन् =धैर्यशील
स्थान :उन्नाव
हमारे धैर्य उत्साह आदि में वृद्धि करने वाले ये सदाचार संप्रेषण हमें मनुष्यत्व की अनुभूति कराते हैं अंश का अंशी से संबन्ध बताते हैं हमें याद दिलाते हैं कि संसार में हम निस्पृह भाव से प्रेमाधारित सेवा भक्ति कर्म के लिये आये हैं कर्म को धर्म बनाने में व्याधिमंदिर अर्थात् शरीर को कष्ट सहने होते हैं लेकिन इस शरीर को इतना व्याधिग्रस्त न होने दें कि यह विद्रोह करने लगे
सुनि दसकंठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार॥56॥
यह कालनेमि भी राम राम कह रहा था और विभीषण भी हनुमान जी ने कालनेमि को मार डाला और विभीषण से मित्रता कर ली राम नाम कहने में दोनों के भाव में अन्तर था
भाव और भाषा एक साथ होने पर एक अलग ही परिणाम देते हैं
आइये प्रवेश करते हैं सुन्दर कांड में
बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥
विभीषण जी ने कहा हे पवनपुत्र! मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में अभागी जीभ
हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यवंशी रामजी क्या कभी कृपा करेंगे
दंभी रावण को यह पसंद नहीं था कि उसकी विधि व्यवस्था में कोई दखल दे लेकिन विभीषण की राम भक्ति से उसे कोई एतराज नहीं
तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥2॥
तामसी तन में मन सात्विक है
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥3॥
पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥2॥
,जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवन सुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥3॥
देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥8॥