7.11.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 7 नवम्बर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥

तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥


प्रस्तुत है दर्शक आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 7 नवम्बर 2022 

 का  सदाचार संप्रेषण 

 

 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

  466 वां सार -संक्षेप

दर्शकः =कुशल व्यक्ति



दम्भ बहुत भयानक होता है यह रावणत्व बहुत हानि पहुंचाता है इसलिये शक्ति अर्जित करें लेकिन सात्विकता में रमी हुई

नित्य इन सदाचार वेलाओं के संप्रेषण के पीछे  उद्देश्य यही है कि हमारी साधना टूटे नहीं

अपनी संस्कृति के प्रति पूर्ण विश्वास करें हम गर्व कर सकें कि हम भारतवर्ष की भूमि पर जन्में हैं 

हम सशक्त भावनाओं विचारों से संपन्न बनें भक्ति शक्ति अर्जित करें गीता राम चरित मानस आदि से हमें यही प्रेरणा मिलती है


मानस का अध्ययन करने के पश्चात् कुछ समय उन घटनाओं चौपाइयों दोहों पर विचार करने में लगायें भाव क्या है कथा क्या है इसे समझें

साहित्यावतार महात्मा चिन्तक विचारक विद्वान मनीषी तुलसीदास की साधना का परिणाम है कि आज भी स्थान स्थान पर मानस का अखंड पाठ होता है तमाम अनुसंधान हो रहे हैं भक्त गाते रहते हैं 



सुन्दर कांड में हनुमान जी को मां सीता का आशीर्वाद मिला



अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥

करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥


बेटा तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने हो जाओ

श्री राम जी तुम पर बहुत कृपा करें। 'प्रभु कृपा करें' ऐसा  सुनते ही हनुमान जी पूर्णरूपेण प्रेम में मग्न हो गए

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और फिर 


नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥

खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥


सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥

सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥


पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥

आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥



कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।

कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥



सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥

मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥


तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥

मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥4॥



ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा मन कीन्ह बिचार।

जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥19॥



आगे लंका दहन है जिसको आचार्य जी आगे विस्तार से बतायेंगे