8.11.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 8 नवम्बर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥

तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥



प्रस्तुत है नीवर आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 8 नवम्बर 2022 

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

  467 वां सार -संक्षेप

नीवरः =संन्यासी


रामचरित मानस, जिसमें भगवान राम जी

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥

जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥3॥


धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥

हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥4॥

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥5॥



 हनुमान जी


सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥

   सीता जी आदि आदर्श के मानदंड हैं,का आधार लेकर आचार्य जी हम राष्ट्र -भक्तों को एक संदेश देना चाहते हैं और यह संदेश हमें बड़ा सुस्पष्ट होना चाहिये

संदेश है

समय पर भक्ति विश्वास संयम साधना सहयोग संगठन करने की क्षमता सद्बुद्धि आदि शक्तियों को एकत्र कर विकृति पर 

वज्र प्रहार करना विकृति को भस्मीभूत करना ताकि वह फिर से सिर न उठा सके मनुसाई 

( पुरुषार्थ )की यही परिभाषा है

लंका दहन एक अद्भुत प्रसंग है कवितावली में तो इस पर तॆईस छंद हैं

आइये प्रवेश करते हैं सुन्दरकांड में 


ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा॥

तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥


कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥

दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥3॥


कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥

देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥4॥


कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।

सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद॥20॥

इसी तरह का बुरा बोलने वाले आज भी हमें दिखते हैं जिन्हें वोट तो चाहिये लेकिन उन्हें अपने राष्ट्र से ही प्रेम नहीं अपनी संस्कृति से प्रेम नहीं

रावण को सुझाव भी हनुमान जी देते हैं


सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥

..


सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥

सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥3॥


रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥

कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥


स्वर्ण लंका को भस्मीभूत कर देना एक तात्विक पक्ष है आज जो धन का स्वरूप हमारे सामने है उसमें हनुमान भक्ति की बहुत आवश्यकता है



बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥

पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघुरूप तुरंता॥4॥


निबुकि चढ़ेउ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥


हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।

अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥25॥


पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।

जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥26॥


जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥

ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥