कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टंकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥1॥
प्रस्तुत है आत्मसम्पन्न *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 26 दिसंबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
515 वां सार -संक्षेप
*स्वस्थचित्त
कल सम्पन्न हुआ कार्यक्रम प्रेममय कार्य की सफलता का नमूना था
हम जीवनपर्यन्त संयुत रहने का अभ्यास लेकर चल रहे हैं
यह हमारी भारतीय संस्कृति का मूल आधार है
आचार्य जी ने षड् रिपुओं में मत्सर के अतिरिक्त बाकी को सात्विकता से संयुत किया
संपूर्ण सृष्टि में देवत्व मनुष्यत्व विद्यमान है
भारत का अध्यात्म इन सबका संयोजन करता है
गीता में
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।
विशद बुद्धि से युक्त व्यक्ति , धृति द्वारा आत्मसंयम कर, शब्द आदि विषयों, राग, द्वेष को त्यागते हुए
विविक्त सेवी, मिताहारी जिसने अपने शरीर, वाणी और मन को संयत कर लिया है,जो ध्यानयोग के अभ्यास में सदैव लगा रहता है, जो वैराग्य पर समाश्रित है
अहंकार, बल, घमंड , काम, क्रोध और परिग्रह को किनारे कर ममता के भाव से रहित और शान्त पुरुष ब्रह्म प्राप्ति हेतु सुयोग्य बन जाता है
मोक्ष मृत्यु नहीं उत्साहमय संकल्पमय आनन्दमय विश्वासमय जीवन है
रोग दोष विचारमय जीवन है
हमें शंकाशील लोभी कामी देवत्व कभी नहीं प्राप्त करना
कर्मशील मनुष्य का हमें जीवन जीना है
इसी सात्विक चिन्तना के पश्चात् आइये रामदल के हम सदस्य चलते हैं लंका कांड में
कुम्भकर्ण के हावी होने पर भगवान् राम ने अपने हाथ में कमान ले ली
सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन॥67॥
छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच।
पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच॥68॥
भगवान् राम के बाणों ने पलक झपकते ही राक्षसों को काटकर रख दिया। फिर वे सब बाण वापस श्री राम के तरकस में पहुंच गये
खैंचि धनुष सर सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥4॥
कुम्भकर्ण मारा गया
और
सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा॥3॥
देव नगाड़े बजाते हुए , हर्षित होते हुए, स्तुति करते हुए बहुत से पुष्प बरसाने लगे
संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।
...यह भगवान् राम के वीरत्व का तुलसीदास जी ने अद्भुत वर्णन किया है
कुम्भकर्ण की मृत्यु पर
बहु बिलाप दसकंधर करई। बंधु सीस पुनि पुनि उर धरई॥2॥
फिर मेघनाथ आ जाता है
मेघनाद मायामय रथ चढ़ि गयउ अकास।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास॥72॥
हिन्दू मानस के भय को समाप्त करने के लिये तुलसी जी ने ये सब वर्णन किये हैं
रामजन्म का हेतु है
असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु।।121।।