ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥ 78॥
प्रस्तुत है दाम्भिक -रिपु *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 29 दिसंबर 2022
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
https://youtu.be/YzZRHAHbK1w
*518 वां* सार -संक्षेप
*धोखेबाजों के शत्रु
स्थान :उन्नाव
शास्त्रसिद्धान्त है कि ब्राह्मण अपना घर नहीं बनाता
प्रश्न यह कि ब्राह्मण कौन
इस तरह के अद्भुत प्रश्नों का हल भारत वर्ष की इस पावन भूमि पर समय समय पर होता रहता है
स्रष्टा की विधि व्यवस्था है कि युग परिवर्तित होते रहते हैं कलियुग में भी अच्छाइयां हैं
परिवर्तन अनिवार्य है एकरसता खलने लगती है
मनुष्य सामाजिक प्राणी है सहारों से संतुष्ट न रहने वाले सतत व्याकुल रहते हैं
और ऊबते हैं
यह सदाचार संप्रेषण हमें यही सिखाता है कि सांसारिक व्यथाएं हमें पीड़ित न करें संसार का आनन्द हमें आनन्दित करे
हमारा मन लगे हम अपने अस्तित्व, तत्त्व, अध्यात्म की समझ भी साथ साथ रखते चलें
मानस गीता भी यही संदेश देते हैं
अत्यधिक क्षमतावान शक्तिसम्पन्न अर्जुन में भी युद्ध के समय मोहजनित भय व्याप्त हो गया
षड्रिपुओं में भय साथ साथ चलता है निर्भयता ही मोक्ष है
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3।।
इस छन्द से हमारा तत्त्व जाग्रत हो जाता है
इन्हीं ग्रंथों का सहारा लेकर आइये चलते हैं अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिये सत् आचरण के मार्ग पर
लंका कांड मे
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर संधान कीन्ह करि दापा॥
छाड़ा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥
भगवान् राम जी के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मणजी ने वीरत्व दर्शाते दर्प के साथ बाण का संधान किया। बाण उसकी छाती के बीचों बीच लगा। मरते समय उसने सारे कपट त्याग दिये
भीतर का आत्मतत्त्व जाग्रत हो गया
रावण को जब यह खबर लगी
मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥
मंदोदरी रुदन कर भारी। उर ताड़न बहु भाँति पुकारी॥
नगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकंधर पोचा॥
तब रावण समझा रहा है कि जगत् का यह दृश्य नाशवान है, इसमें संशय नहीं
*पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥*
यह मनुष्यत्व की कमजोरी है हमें इसी से सावधान रहना चाहिये
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः।।12.17।।
रावण मैदान में उतर चुका है
ताहि कि संपति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥ 78॥