7.12.22

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 7 दिसंबर 2022 का सदाचार संप्रेषण

 प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।

आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि॥ 20॥



प्रस्तुत है दिग्विभावित *आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 7 दिसंबर 2022 

 का  सदाचार संप्रेषण 


 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


https://youtu.be/YzZRHAHbK1w

  496 वां सार -संक्षेप

* सब दिशाओं में प्रसिद्ध


हम भारतीय  उदयाचल संस्कृति के उपासक हैं प्रातःकाल का जागरण एक तरह से नये जीवन का उदय है इस काल में अपने अन्दर सद्विचार भरने के लिये हमारे सामने ये सदाचार वेलाएं उपलब्ध हैं हमें इनका लाभ लेना चाहिये 

हम सबके इष्ट देवता अलग अलग हैं लेकिन सबका इष्ट एक है  वह है मोक्ष अर्थात् परम आनन्द


समस्याओं  प्रपंचों बन्धनों निषेधों से मुक्ति ही मोक्ष है

हम सब इसकी कामना करते हैं हमारा अध्यात्म दर्शन साहित्य इसकी ओर ही हमारा ध्यान दिलाता है


हमारी शिक्षापद्धति जीविका चलाने का साधन है लेकिन इसमें  भी गहराई में जाकर हम बहुत कुछ देख सकते हैं कवियों का भाव क्या है यह न समझकर कविता के अर्थ तक अपने को सीमित करते हैं

अध्ययन के प्रति  हमारा सहज आत्मबोध होना चाहिये


इस आत्मबोध की स्थिति में आने पर राम चरित मानस की कथा का हेतु हमें समझ में आयेगा


इसमें एक संदेश है


इसी में अङ्गद दौत्य नामक एक  प्रसंग है

रावण की सभा में भगवान राम के दत्तक पुत्र अंगद प्रवेश करते हैं

कवितावली में



आयो! आयो! आयो सोई बानर बहोरि!'भयो सोरु चहुँ ओर लंकाँ आएँ जुबराजकें।

एक काढ़ैं सौंज, एक धौंज करैं, 'कहा ह्वैहै, पोच भई, 'महासोचु सुभटसमाजकें॥

गाज्यो कपिराजु रघुराजकी सपथ करि, मूँदे कान जातुधान मानो गाजें गाजकें।

सहमि सुखात बातजातकी सुरति करि, लवा ज्यों लुकात, तुलसी झपेटें बाजकें॥

अद्भुत रचना है यह तुलसी दास की 



मानस में 

गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कंज।

सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुंज॥ 18॥


वीर के मन में विशालता वितृष्णा उत्पन्न करती है और कायर के मन में भय

अब लंका कांड में आगे



भुजा बिटप सिर सृंग समाना। रोमावली लता जनु नाना॥

मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कंदरा खोह अनुमाना॥


अंगद की तेजस्विता के प्रभाव से सभासद खड़े हो गये


गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा॥

उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥


अंगद


उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥

बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥



रावण से कहता है


राजदम्भ में तुमने मां सीता का हरण कर लिया है यह तो बहुत बड़ा अपराध है


नृप अभिमान मोह बस किंबा। हरि आनिहु सीता जगदंबा॥

अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥


इसलिये अच्छा तो यही रहेगा


दसन गहहु तृन कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निज नारी॥

सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥