कभी भी साधना को सिद्धि की वाञ्छा नहीं होती,
कभी कर्मानुरागी वृत्ति आकांक्षा नहीं ढोती,
कि वह आजन्म कर्मानंद में अलमस्त रहती है,
प्रभावों या अभावों में विहँसती है नहीं रोती। ।
प्रस्तुत है संकटमोचक हनुमान जी की प्रेरणा से सुचरित आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 10-01- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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530 वां सार -संक्षेप
हम इस भावमय विचारमय वेला में रहते हुए संसार के सत्य, अर्थात् कर्म करते हुए भी कर्मबन्धनों में जकड़े न रहने का प्रयास,को आत्मसात् करने का प्रयास करते हैं
कभी मस्त रहते हुए कभी पस्त होते हुए
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायाताः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि न मुञ्चत्याशावायुः ॥१॥
आयु बीतती जाती है लेकिन फ़िर भी आशा रूपी प्राणवायु छूटती नहीं
सजग रहते हुए कर्तव्य कर्म से विमुख न हों
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
बुद्धि से युक्त मनुष्य इस लोक में जीवित अवस्था में ही पुण्य, पाप दोनों को त्याग देता है। अतः तू जीवात्मा और परमात्मा (सत और असत) के योग में रत हो जा, क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार। संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥
और समता से युक्त मनीषी साधक कर्मजन्य फल त्याग कर जन्म बन्धन से मुक्त होकर निर्विकारी पद को प्राप्त हो जाते हैं
भगवत् भक्ति में जीवात्मा का योग सफल हो जाता है मनुष्य का जीवन कर्म करने के लिये बना है
अपार संसार समुद्र मध्ये
निमज्जतो मे शरणं किमस्ति ।
गुरो कृपालो कृपया वदैत-
द्विश्वेश पादाम्बुज दीर्घ नौका ॥ १॥
प्रश्न :- हे कृपालु गुरु जी ! कृपया यह बताइये कि अपार संसार रूपी सागर में मुझ डूबते हुए का आश्रय क्या है ?
उत्तर :- परमात्मा के चरण रूपी जहाज |
तितली उड़ी, उड़ जो चली
फूल ने कहा, आजा मेरे पास
तितली कहे, मैं चली आकाश
शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो
जागर्ति को वा सदसद्विवेकी ।
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि
तान्येव मित्राणि जितानि कानि ॥ ४॥
प्रश्न :- सुख से कौन सोता है ?
उत्तर:- जो व्यक्ति परमात्मा के स्वरूप में स्थित है
प्रश्न :- और जागता कौन है ?
उत्तर:- जो सत्,असत् के तत्त्व का जान लेता है
प्रश्न :- शत्रु कौन हैं ?
उत्तर:- अपनी इन्द्रियाँ;
परन्तु यदि वे जीती हुई हों तो वही मित्र हो जाती हैं |
इन सबसे प्रेरणा लेकर हम कर्मानुरागी बनें संकटों का सामना करें उन्हें सुलझाएं
आनन्द की अखंड धारा में आनन्द लेते हुए साथी सहयोगियों के दुःखों को भी दूर करें
शौर्यपूर्वक अध्यात्माधारित होकर आइये चलते हैं लंका कांड में
लेनदेन का भाव लेकर आनन्द की अनुभूति न करने वाला और शंकर जी को पूजने वाला दुष्ट रावण हठवश अज्ञानवश यज्ञ कर रहा है
इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥
नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥
यहाँ विभीषण को खबर मिली और तुरंत जाकर राम जी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण जी यज्ञ कर रहा है उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा
तो
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अंगद सब धाए॥