यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।।4.23।।
प्रस्तुत है पृथुदर्शिन् ¹आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 04-02- 2023 का सदाचार संप्रेषण
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*555 वां* सार -संक्षेप
1 दूरदर्शी
हमें इन सतत चल रहे सदाचार संप्रेषणों को सुनकर गुनकर उनके संकेतों के आधार पर अपने विकास के लिये, आनन्द प्राप्ति के लिये और जीवन के रहस्य को भली भांति समझकर मनुष्योचित जीवन जीने के लिये सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये
हमारी गतिविधियां देखकर कार्य शैली देखकर यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि सदाचार वेलाओं से हम कुछ ग्रहण कर रहे हैं या नहीं
अपने आप जो मिल जाये उसमें सन्तुष्ट रहने वाला, द्वन्द्वों से अतीत तथा ईर्ष्या से रहित, सिद्धि व असिद्धि में समान भाव वाला कर्म करके भी नहीं बन्धता है
जो आसक्ति से रहित है जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है, यज्ञ हेतु आचरण करने वाले ऐसे लोगों के सारे कर्म विलीन हो जाते हैं
जिसकी ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा पाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है यह जानकर
हमें आनन्द की अनुभूति होती है यह सब बुद्धि की सम अवस्था से प्राप्त होता है
शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा । ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं तत्वज्ञानं च धीगुणा: ॥
(महाभारत, कुम्भकोणं सं., 3.2.19)
बुद्धि के आठ अंग हैं-
(1) शुश्रूषा
(2) श्रवण
( 3 ) ग्रहण
(4) धारण
(5) ऊहा
(6)अपोह
(7) अर्थविज्ञान
(8) तत्वज्ञान
आचार्य जी ने इन अंगों की व्याख्या की
बुद्धि के इन तत्वों को हम ग्रहण करें निर्मल मन कर इनके लिये प्रयास करें
उत्साह शौर्य शक्ति भक्ति के साथ जीवन में आगे चलें
हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी।।
भव प्रबाहँ संतत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥6॥
हम प्रवेश कर चुके हैं लंका कांड में
जन्म मृत्यु के चक्कर में पड़े देवता भी प्रभु की शरण मांग रहे हैं यही तत्वज्ञान हमें समझना है संसार केवल धरती नहीं है अनंत ब्रह्माण्डों का समूह संसार है