9.2.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का दिनांक 09-02- 2023 का सदाचार संप्रेषण

 सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्‌। अथातः संहिताया उपनिषदं व्याख्यास्यामः। पञ्चस्वधिकरणेषु। अधिलोकमधिज्यौतिषमधिविद्यमधिप्रजमध्यात्मम्‌ ll


(तैत्तिरीय उपनिषद् )

हम दोनों भावनाओं के आधार पर एक दूसरे से संबन्ध बनाये हुए आचार्य और जिज्ञासु शिष्य एक साथ यशस्वी बनें , एक साथ ब्रह्मवर्चस प्राप्त करें। इसके बाद हम संहिता के गूढ़  अर्थ की व्याख्या करेंगे जिसके पाँच प्रमुख विषय (अधिकरण) हैं

लोकों से सम्बन्धित, ज्योतिर्मय अग्नियों से सम्बन्धित,  विद्या से सम्बन्धित ,प्रजा से सम्बन्धित और आत्मा से सम्बन्धित  इन्हें 'महासंहिता' कहा जाता है।




प्रस्तुत है आयः शूलिक ¹आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 09-02- 2023

का  सदाचार संप्रेषण 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


  560 वां सार -संक्षेप

1 परिश्रमी


विदेशों की भौतिक उपलब्धियों की परम्परा से इतर हमारी आर्ष परम्परा एक श्रेष्ठ परम्परा है और यह अनुभूति का विषय है और जब इसकी अभिव्यक्ति होती है तभी ब्रह्मवर्चस की प्राप्ति होती है


भावनाओं का अत्यन्त गम्भीर महत्त्वपूर्ण संसार केवल मनुष्य को प्राप्त है यही मनुष्यत्व है हमें इसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये


भारतभूमि


उस पर है नहीं पसीजा जो, क्या है वह भू का भार नहीं। वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥


 अत्यन्त विलक्षण भावुक चरित्रों की भूमि है


जिसने कि खजाने खोले हैं,नवरत्न दिए हैं लासानी। जिस पर ज्ञानी भी मरते हैं, जिस पर है दुनिया दीवानी॥



 राम कृष्ण की भूमि है

लक्ष्मण भरत सीता कौशल्या कैकेयी दशरथ आदि की धरती है कुछ मूर्खों को मानस के ये भावुक पात्र नहीं दिखाई देते और वे उस ग्रंथ में दोष खोजते हैं 


आइये चलते हैं 

समाज सेवक गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हमारे मार्गदर्शन के लिये रचित उसी सर्वसुलभ रामचरित मानस 

के लंका कांड में


सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥

सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥4॥


विभीषण को अब भोगमय लंका से लगाव नहीं रहा इसलिये वह अयोध्या जाना चाहता है भगवान् राम उन्हें उनके कर्तव्य की याद दिलाते हैं

और यह भी कहते हैं

भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥116 क॥

भगवान् अत्यन्त भावुक हो जाते हैं

इसे आत्मीयता लगाव प्रेम कहते हैं जिसकी कमी के कारण अब हमारे परिवार बिखर गये हैं 


तापस बेष गात कृस जपत निरंतर मोहि।

देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥116 ख

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने डी ए- वी  कालेज का नाम क्यों लिया जानने के लिये सुनें