21.2.23

 प्रेम ही ईश्वर है


प्रस्तुत है  वमि -अरि ¹आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज दिनांक 21 -02- 2023

का  सदाचार संप्रेषण 

 

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  572 वां सार -संक्षेप

1 वमि =बदमाश


स्थान :उन्नाव



यदि परमात्मा  द्वारा रचित यह सारा संसार  श्वेतवर्णमयी होता तो आनन्द नहीं आता

विकार भी आवश्यक हैं 

संसार रंगीन है और बहुत वैविध्य लिये हुए है

संसार में भाव विचार चिन्तन कर्म यथार्थ बहुत कुछ है 

 ऐसा लगता है सारी रंगीनी भारत भूमि पर ही एकत्र हो गई है

हम इसी भूमि पर रह रहे हैं तो हमें इसका महत्त्व समझ में नहीं आता 


अच्छे भाव ग्रहण करने के लिये हम इन संप्रेषणों का सहारा लेते हैं

ये सुनकर हम अपने अंदर के विकारों को दूर करते हैं हमें समस्याओं का हल मिलता है


 आजकल रामचरित मानस, बागेश्वर धाम आदि को लेकर बहुत चांव चांव मची है लेकिन चिन्तक विचारक इन परिस्थितियों में सामञ्जस्य बैठाकर समस्या की खोज करते हैं

हम अपने महत्त्व को समझते हुए कार्य और व्यवहार में प्रवृत्त हों 

आचार्य जी ने परामर्श दिया कि गीता के चौथे अध्याय में 13 से 24 तक छंदों को समझने का प्रयास करें


चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।


तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।।


गुण और कर्मों के विभाग से चातुर्वण्य मेरे द्वारा रचित है।  मैं उसका कर्ता तो हूँ लेकिन तुम मुझे अकर्ता और अविनाशी  ही जान लो


कर्म मुझ कृष्ण को लिप्त नहीं करते हैं और न मुझे कर्मफल में चाहत है।

पहले के मोक्ष की चाहत रखने वाले पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार की जानकारी द्वारा ही कर्म किया गया है;  इसलिये तुम भी पूर्वजों द्वारा  किये हुए कर्मों को ही करो


कर्म अकर्म जानकर तुम संसार बन्धन से मुक्त हो जाओगे

समस्त कार्य कामना और संकल्प से रहित हों


कर्मफलासक्ति त्यागने पर वह कर्म में प्रवृत्त होते हुए भी  कुछ भी नहीं करता है


अपने आप जो कुछ प्राप्त हो उसमें ही सन्तुष्ट रहें


यज्ञ भाव से कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म विलीन हो जाते हैं


इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में स्थित पुरुषों का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है


आइये चलते हैं राम कथा में


भरत जी

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥




 राम जी


जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥




से मिलने वाले हैं


रिपु रन जीति सुजस सुर गावत। सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥

सुनत बचन बिसरे सब दूखा। तृषावंत जिमि पाइ पियूषा॥3॥

हनुमान जी ने जैसे ही अपना परिचय दिया


सुनत भरत भेंटेउ उठि सादर॥

मिलत प्रेम नहिं हृदयँ समाता। नयन स्रवतजल पुलकित गाता॥5॥

हनुमान जी भगवान् राम को अयोध्या का संपूर्ण समाचार सुनाते हैं 

इसके बाद आचार्य जी ने क्या बताया जानने के लिये सुनें