नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो। सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो॥
करनधार सदगुर दृढ़ नावा। दुर्लभ साज सुलभ करि पावा॥4॥
प्रस्तुत है दन्दशूक -रिपु ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज
चैत्र शुक्ल पक्ष त्रयोदशी विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 03-04- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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613 वां सार -संक्षेप
1 दन्दशूकः =राक्षस
परमात्मा के प्रसाद के रूप में प्राप्त इन राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण अध्यात्मोन्मुख सदाचार वेलाओं का संप्रेषण अनवरत चल रहा है यह परमात्मा की अद्भुत लीला है
भारत की आत्मा गाँवों में बसती है और भारतवर्ष का महत्त्व गाँवों से ही आँका जाता है।लेकिन गांव आज भी उपेक्षित हैं
ओलावृष्टि में कुछ गांवों का बहुत नुकसान हुआ है इस कारण हमारी संस्था को उन गांवों के किसानों की बेचारगी दूर करने की आवश्यकता है
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥1॥
जो व्यक्ति किसी कार्य को तपस्या मानकर करता है लेकिन उससे वह कुछ प्राप्त करने की चेष्टा करता है तो वह कैसा तपस्वी
समरभूमि में आत्मार्पित तपस्वी को कुछ प्राप्त करने की इच्छा करनी ही नहीं चाहिए
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥4॥
यहां परलोक का व्यापक अर्थ समझना चाहिए हम जहां भी जाएं उसे संवारे भगवान् राम स्थान स्थान पर लोगों को संगठित करते रहे और वह तो कलियुग भी नहीं था
सङ्घे शक्ति: कलौ युगे
कलियुग में संगठन का महत्त्व और अधिक है हमें इस ओर कर्मयोद्धा बनकर ध्यान देना चाहिए समान विचार वाले संगठनों को भी एक छत के नीचे आने की आवश्यकता है
भगवान् राम कहते हैं
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई। मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई। तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥3॥
भगवान् राम का मम बहुत विस्तार लेता है
मेरा तो वही सेवक है वही प्रिय है, जो मेरी आज्ञा मानेगा यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूँ (यद्यपि भगवान् राम ने नीति से इतर कभी कुछ कहा ही नहीं) तो भय बिसारकर मुझे रोक देना
मनुष्य को मनुष्य का शरीर मिला है तो उसको मनुष्यत्व की अनुभूति भी होनी चाहिए
कर्मयोगी मनुष्य सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके भगवान का परायण करे क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि भी प्रतिष्ठित है
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।
Society में हमें और तपस्वी स्वरूप में आने की आवश्यकता है अब प्रौढ़ मति आवश्यक है
प्रवाह पतित अवस्था क्या है? आचार्य जी ने और क्या बताया जानने के लिए सुनें