आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयां स्तेषु गोचरान्।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः।।
(कठोपनिषद्-1.3.3-4)
प्रस्तुत है लस्त ¹आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज
वैशाख कृष्ण पक्ष अष्टमी विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 14-04- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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624 वां सार -संक्षेप
1=कुशल
सांसारिक प्रपंच इतने ज्यादा हैं कि हम लोगों का मानसिक स्तर अस्त व्यस्त रहता है इसी कारण ये सदाचार संप्रेषण महत्वपूर्ण हैं जिनसे हम अपना मानसिक स्तर सही रखने के रहस्य खोज सकते हैं अपना आत्मबोध जाग्रत कर सकते हैं ये संप्रेषण बोध कराते हैं कि हमने पुनर्जन्म में विश्वास करने वाली संस्कृति के चिन्तन वाली अद्भुत भारत भूमि पर जन्म लिया है
गीता में
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात् स्थितिं स्थिराम्।।6.33।।
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।6.34।।
अर्जुन ने कहा -- हे कृष्ण ! इस साम्य योग की चिरस्थायी स्थिति को नहीं देख पा रहा हूं क्योंकि मन बड़ा ही चञ्चल, प्रमथनशील, जिद्दी और बलवान् है। उसका निग्रह करना वायु की तरह अत्यन्त कठिन लगता है
लेकिन भगवान् कृष्ण कहते हैं
अभ्यास के साथ वैराग्य संयुत करने से यह संभव है
आचार्य जी ने वैराग्य का अर्थ स्पष्ट किया
चिन्ताएं हानिकारक हैं
उत्तरकांड में
एक बार बसिष्ट मुनि आए। जहाँ राम सुखधाम सुहाए॥
अति आदर रघुनायक कीन्हा। पद पखारि पादोदक लीन्हा॥1॥
विसंगति का मेल देखिये राम संसार के धर्म कर्म में रत हैं और वशिष्ठ मुनि संसार के आवरण को उतारकर आत्मबोध में लिप्त राम से मिलने आ रहे हैं
जो भगवान राम को तत्त्व देख रहे हैं
आचार्य जी ने अनुरक्त विरक्ति को स्पष्ट किया और
इसके आगे क्या बताया जानने के लिए सुनें