3.5.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का 03 -05- 2023 का सदाचार संप्रेषण https://sadachar.yugbharti.in/

 यह जीवन सुख दुख  शोक हर्ष उत्थान पतन की परिभाषा

क्षणभंगुर हो यह भले मगर

 अन्तर्मन में केवल आशा


जीवन विराग की करुण कथा

संघर्षों भरी जवानी है

जीवन मरुथल की अबुझ प्यास गंगा का शीतल पानी है


जीवन अलबेला रंगमंच अभिनय अभिनेता एक रूप

और कल्पना कथा संगीत वाद्य सब मिल बनते मोहक स्वरूप


पर वेश उतरते ही दुनिया फिर वैसी वैसा खांव खांव

सुरभित प्रसून भ्रमरावलियां विलुप्त फिर से वह कांव कांव



प्रस्तुत है लब्धनामन् ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज  03 -05- 2023

का  सदाचार संप्रेषण 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


  643 वां सार -संक्षेप

1=जिसने नाम कमाया हो

वर्षों से भावनात्मक रूप से आचार्य जी हम लोगों से संयुत हैं हम आज भी आचार्य जी के सदाचारमय विचारों से लाभान्वित हो रहे हैं


शरीर शिथिल हो सकता है मन प्रायः शिथिल नहीं होता

और जब मन शिथिल हो जाता है तो शरीर भी अशक्त हो जाता है इसलिए प्रयासपूर्वक हमें मन को कभी शिथिल नहीं करना है


मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥



मन को सुदृढ़ करने के लिए हमारे ऋषियों ने अनेक उपाय बताएं हैं और  कोई व्यक्ति  इतनी संगति पाकर भी उन उपायों का सहारा नहीं लेता  तो हो सकता है पूर्व जन्म के उसके बोझिल कर्मों का उदय हो गया हो


जीवन को जीने और ढोने में अंतर है

हमें मनुष्य रूप में मिले जीवन को जीना सीखना चाहिए


हम भक्ति शक्ति सिद्धान्त के प्रति समर्पित रहें


अनन्त अन्तरिक्ष में विलीन होने के बाद भी  विश्व के केन्द्र विश्वगुरु भारत की ओर निहारते महापुरुष हमें निर्देश दे रहे हैं कि मानव जीवन पाकर हम उसे व्यर्थ न करें

अपने धर्म का पालन करें

हम चिन्तक विचारक संयमी हैं हम मनुष्य के मनुष्यत्व को समझने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं समझते भी हैं


यह जीवन सुख दुःख लाभ हानि उत्थान पतन वैभव अभाव संयोग वियोग प्रीति विग्रह धन यश के प्रति अद्भुत लगाव......

मानव जीवन सचमुच में अद्भुत विलक्षण है इसलिए मानव का जीवन पाकर भी कोई व्यक्ति सोचे कि उसके पास है ही क्या तो वास्तव में उसे अभागा ही कहा जाएगा

कायर कहा जाएगा



राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ।

सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ॥ 78 ख॥

कुछ भी कर लें सूर्य के बिना रात नहीं जा सकती


उसी सूर्य के हम उपासक हैं


हमारी बुद्धि प्रखर प्राञ्जल परिपुष्ट विवेक से आनन्दित बने

हम पिंजरबद्ध न रहें


ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा। मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा॥

हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या। प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या॥1॥


अविद्या का आश्रय ले सकते हैं लेकिन लक्ष्य विद्या ही होना चाहिए



आचार्य जी ने इसका क्या विस्तार किया कि कागभुशुंडी जी  शूद्रतन पाकर भक्ति कर रहे हैं आदि जानने के लिए सुनें